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________________ यह जो मूच्छा का, मोह का, असंयम का प्रयत्न चल रहा है, उसके कारण इतने कर्म-परमाणु आये हैं कि हमारी आत्मा के, हमारी अखंड चेतना के एक-एक कण पर, एक-एक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त परमाणु चिपके बैठे हैं। एक-दो नहीं, अनन्त-अनन्त परमाणु। अब इन्हें निकालें तो भी कैसे? इन्होंने अपना पूरा अधिकार, अपनी पूरी सत्ता जमा ली है। ये सहजतया वहां से हटना नहीं चाहते। जिसका अधिकार था, वह चैतन्य सो गया। उसका अधिकार छिन गया। जिसका कोई अधिकार नहीं था, उसने ऐसा अधिकार जमा लिया कि मानो चैतन्य तो है ही नहीं, सब कुछ पुद्गल-ही-पुद्गल है। जड़ता-ही-जड़ता है। इसलिए हमें यह संदेह भी हो जाता है कि आत्मा है या नहीं? आत्मा की वास्तविक सत्ता है या नहीं? चैतन्य का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं है? यह संदेह किसी को नहीं है। भौतिकता है या नहीं, यह संदेह किसी को नहीं। क्योंकि पुद्गल, का भौतिकता का इतना प्रबल साम्राज्य जम गया है कि उनकी प्रबलता में जो एकमात्र अपौद्गलिक पदार्थ था, वह दब गया। एकमात्र चेतन तत्त्व था, जो जड़ नहीं था, अचेतन नहीं था, वह लुप्त-सा हो गया। विश्व में एक मत ही चल पड़ा कि चैतन्यवाद की कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। सब कुछ जड़-ही-जड़ है, जड़वाद ही चल रहा है। इस प्रकार जड़वाद की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गयी। ऐसा क्यों हुआ? इसका मूल कारण रहा है-असंयम, आस्रवं। असंयम ने आस्रव को बल दिया। उपचय होता गया। खजाना भरने लगा। भर गया। जब तक जमे हुए खजाने को रिक्त नहीं किया जाता और नवागंतुक के मार्ग को रोका नहीं जाता, तब तक अपने स्वभाव के अनुभव की बात सफल नहीं हो सकती। संवर कैसे होगा? चैतन्य का अनुभव कैसे होगा? अपने अस्तित्व का अनुभव कैसे होगा? चैतन्य का अनुभव, अस्तित्व का अनुभव, संवर-ये सब एक ही हैं। संवर का अर्थ ही है-अपने चैतन्य का अनुभव, अपने अस्तित्व का बोध। यह तब तक संभव नहीं, जब तक चय को रिक्त नहीं किया जाता और द्वार को बंद नहीं किया जाता। चय को रिक्त करने का कार्य चारित्र का है। हमाने राग-द्वेष के परिणमन तथा 122 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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