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________________ मन, वाणी और शरीर की चंचलता के द्वारा ही विजातीय पदार्थों को अपनी ओर खींचा है, उन्हें आकर्षित किया है और उनका संग्रह किया है। जब तक मन, वाणी और शरीर की चंचलता समाप्त नहीं हो जाती, तब तक जो उपचित है, उसे रिक्त नहीं किया जा सकता, खाली नहीं किया जा सकता। क्योंकि कुछ खाली होगा तो नया संग्रह उसका स्थान ले लेगा। यह क्रम अबाधगति से चलता रहेगा। ___इस स्थिति में पहला काम यह होगा कि हम अपने आचरण को समतामय बनाएं। भगवान महावीर ने समता पर सर्वाधिक बल दिया। हम समझते हैं कि जीव मात्र पर समभाव रखना ही समता है, यही धर्म है। यह एक बात है। यह धर्म है ही। किन्तु इसका और गूढ़ अर्थ है। समता का मूल तात्पर्य है अराग का क्षण, अद्वेष का क्षण। हमारे जीवन में ऐसे क्षण बीतें जिनमें न राग हो और न द्वेष हो, वीतरागता का क्षण हो, यह वीतरागता का क्षण ही वास्तव में समता है। जब वीतराग भाव होगा तब सब प्राणियों के प्रति, सब जीवों के प्रति अपने आप समता का भाव होगा। उसमें विषमता रहेगी ही नहीं। किसी भी पदार्थ के प्रति, चाहे फिर वह चेतन हो या अचेतन, उच्चावचभाव समाप्त हो जाता है। न घृणा हो सकती है, न अहंकार हो सकता है, न बड़प्पन का भाव हो सकता है और न छुटपन का भाव हो सकता है। कुछ भी नहीं हो सकता वीतरागता के क्षण में। वही आचरण सबसे बड़ा है जो समतापूर्ण हो। समता ही महान् आचरण है। जिस आचरण में समता नहीं है अर्थात् तटस्थता नहीं है, मध्यस्थता नहीं है, निष्पक्षता नहीं है, राग-द्वेष की प्रचुरता है, वह महान् आचरण नहीं हो सकता। वह सामान्य होगा, सामान्य व्यक्ति का आचरण होगा। महान् आचरणं वही होगा जो पूर्ण तटस्थ, मध्यस्थभाव से परिपूर्ण और राग-द्वेष का परिणतियों से शून्य है। उसका न इधर झुकाव है और न उधर झुकाव है। दोनों पलड़े सम हैं। यह है समता का आचरण। जब समता का आचरण होता है तब विजातीय तत्त्व उखड़ने लगते हैं। जो तत्त्व विषमता के कारण बद्धमूल हो रहे थे, उनकी जड़ें हिल उठती हैं, उनकी सत्ता खिसकने लगती है वे एक-एक कर वहां से हटने लगते कर्मवाद के अंकुश 123
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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