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________________ तक जान नहीं पाया है। इसका कारण है-मिथ्या दृष्टिकोण। हमारा दृष्टिकोण ही कुछ ऐसा बना हुआ है कि जिससे प्यास बुझती है उससे दूर भागते हैं और जिससे प्यास भभकती है उसे इसलिए पी रहे हैं कि प्यास बुझ जाये। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है मूढात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम्। . यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः // . .. - 'मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है उससे अधिक कोई भयानक वस्तु संसार में नहीं है। मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, जिससे दूर भागता है, उससे बढ़कर शरण देने वाली वस्तु संसार में नहीं है।' खतरनाक वस्तु में विश्वास करना और खतरा मिटाने वाली वस्तु से दूर भागना, यह कब होता है? यह तब होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, मोह प्रबल हो। जब राग-द्वेष की प्रबलता होती है, कषाय की प्रबलता होती है, तब ऐसा होता है। जब तक मिथ्यादृष्टि दूर नहीं होगी, तब तक हम यह समझ नहीं पायेंगे। कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में महावीर से पूछा गया-भंते! कर्म का बन्ध कैसे होता है? उसकी प्रक्रिया क्या है? भगवान् ने कहा-जब ज्ञानावरण कर्म विशिष्ट, उदयावस्था में होता है, तब दर्शनावरण कर्म का उदय होता है। जब जानने पर आवरण आता है, तब देखने पर भी आवरण आ जाता है। जब दर्शन का आवरण होता है, तब दर्शनमोह कर्म का उदय होता है। जब दर्शनमोह का उदय होता है, तब मिथ्यात्व आता है। उसके अस्तित्व में नित्य को अनित्य, सुख को दुःख, अनित्य को नित्य और दुःख को सुख मनाने की बात घटित होती है तब व्यक्ति जो दुःख के साधन हैं, उन्हें सुख के साधन तथा जो सुख के साधन हैं, उन्हें दुःख के साधन मानने लग जाता है। तब वह प्यास को बुझाने वाले साधनों को प्यास लगाने वाले तथा प्यास लगाने वाले साधनों को प्यास बुझाने वाले साधन माननं लग जाता है। सारी बात उलट जाती है। जब तक यह मिथ्यात्व का बन्धन नहीं टूटता, तब तक कर्म का चक्र टूट नहीं सकता। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। 62 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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