________________ तक अध्यात्म की उच्च भूमिका प्राप्त नहीं होती। जो कह दिया, वैसा ही करना है, यह चेतना जब पूर्णतः जागृत नहीं होती, तब कभी-कभी चलते-चलते शिथिलता आ जाती है। कभी वह शिथिलता वातावरण से उत्पन्न होती है और कभी अन्यान्य कारणों से। जब ये चारों आवेग नष्ट हो जाते हैं, इनकी चारों अवस्थाएं क्षीण हो जाती हैं, तब वीतरागता की स्थिति आती है, तब चारित्र यथाख्यात बन जाता है। उस अवस्था में किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य के प्रति शैथिल्य नहीं आता। तब कहने और करने में, करने और कहने में तनिक भी अंतर नहीं रह जाता। कोई भी शक्ति उसमें अंतर नहीं ला सकती। चाहे मनुष्यकृत कष्ट प्राप्त हों, तिर्यंचकृत कष्ट प्राप्त हों या दैवी उपसर्ग प्राप्त हों, चाहे मरने का प्रसंग आये या जीने का, चाहे आकर्षक पदार्थों का अंबार लगा हो या. नीरस पदार्थ पड़े हों, व्यक्ति की चेतना में कोई अंतर नहीं आता। वह आत्मा के साथ एकात्मक हो जाता है, एकरूप हो जाता है। वह यथाख्यात चारित्र इतना अप्रकम्प होता है कि वहां छिपाव की बात सर्वथा समाप्त हो जाती है। वह छद्मरहित अवस्था होती है। भीतर से एक प्रकार की नग्नता जैसी अवस्था हो जाती है। कोई छिपाव या आवरण नहीं रहता। - यह हमारी आध्यात्मिक चेतना का विकास-क्रम है। यह सारा का सारा मोह के विलय के आधार पर होता है। मोह जितना प्रबल होता है, हमारी मूर्छा उतनी ही प्रबल हो जाती है। हमारी मूर्छा जितनी प्रबल होती है, उतना ही हमारा आचार विकृत होता चला जाता है और हमारा दृष्टिकोण भी मिथ्या होता चला जाता है। एक मार्ग है मोह की प्रबलता का और दूसरा मार्ग है मोह की दुर्बलता का या मोह के विलय का। पहले मार्ग से चलते हैं तो आध्यात्मिक चेतना मूर्छित होती चली जाती है और दूसरे मार्ग से चलते हैं तो आध्यात्मिक चेतना विकसित होती चली जाती है। हम किस प्रकार मोह को क्षीण करें, यह साधना का केन्द्र-बिन्दु है। मोह को शांत करें, राग-द्वेष को कम करें और इस प्रकार जीवन जीयें कि कषाय कम होता चला जाये, राग-द्वेष कम होता रहे, यह जैसे कर्मशास्त्रीय मीमांसा है, वैसे ही अध्यात्मशास्त्रीय मीमांसा है। ___ आवेग : उप-आवेग 86