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________________ में आदमी समाज के यंत्र का एक पुर्जा बन जाता है और यांत्रिक जीवन जीता है। उस स्थिति में रोटी की बात गौण हो जाती है, दूसरी बातें सताने लग जाती हैं। . मनुजी से पूछा गया, 'सुख क्या है? दुःख क्या है? उसने कहा, 'सर्वं वरवशं दुखं, सर्वं आत्मवशं सुखं'-परवशता दुःख है और स्ववशता सुख है। परतंत्रता दुःख है और स्वतंत्रता सुख है। / कुछ लोग ऐसे होते हैं जो रोटी के लिए स्वतंत्रता को ठुकरा देते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो रोटी के लिए स्वतंत्रता की बलि देना पसन्द नहीं करते। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों कठिनाइयां झेली। उन्होंने किसी भी मूल्य पर स्वतंत्रता को छोड़ना नहीं चाहा। सुखी जीवन जीना, यह विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में ही हो सकता है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में सख का जीवन नहीं जीया जा सकता, केवल उसके साधनों को प्राप्त किया जा सकता है। राजनीति का क्षेत्र सुख देने का क्षेत्र नहीं है। वह पदार्थ उपलब्ध करा सकता है। राज्य शासन पदार्थ की प्राप्ति करा सकता है। सुख देना उसके हाथ की बात नहीं है। सुख के साधन और दुःख के साधन उपलब्ध कराने में वह सक्षम है। किन्तु सुखी-दुःखी बनाना उसकी क्षमता से परे है। एक राज्य सरकार किसी को अपनी जेल में डाल सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि जेल डाल देना दुःख देना है। पर ऐसी बात नहीं है। बहुत सारे लोग जेल में जाकर भी सुख का अनुभव करते हैं। अनेक राजनीतिक बंदी जेल में जाकर भी दुःख का अनुभव नहीं करते। वे अपने सिद्धांत के साथ जेल में जाते हैं और अपने सिद्धांत के साथ वहां रहते हैं। बड़े-बड़े नेता अपने जेल के जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैं, "जितना पढ़ने-लिखने का मौका जेल में मिला, उतना बाहर नहीं मिला।' बाहर अनेक कार्य होते हैं, पर जेल के एकांत जीवन में केवल स्वाध्याय और लेखन के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं रहता। उन्होंने जेल जीवन को कभी दुःखदायी नहीं माना। दुःख देना राज्य-शासन के हाथ में नहीं है। दुःख का साधन है जेल, वह देना राज्य-शासन के हाथ में है। सुख देना भी 262 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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