________________ भूलें करता है, क्योंकि उसे न आहार संबंधी शिक्षा मिलती है, न ब्रह्मचर्य के विषय में शिक्षा मिलती है और न कषाय-विजय का ही पाठ पढ़ाया जाता है। जब ये शिक्षाएं नहीं मिलतीं, तब आदमी धर्म कैसे कर सकता है? धर्म केवल आकाशीय तत्त्व नहीं है, वह जीवन का घटक है। जो आहार का संयम करना नहीं जानता वह क्या धर्म कर पाएगा? जो व्यक्ति डटकर खाता है, वह बुरे विचारों से ग्रस्त होता है, वासना उभरती है, पेट भारी होता है, अपानवायु दूषित हो जाता है, तब चिन्तन स्वस्थ कैसे रह सकता है? फिर धर्म कहां से आएगा? जिस व्यक्ति में आहार का संयम नहीं है, कामवासना का संयम नहीं है और आवेश का संयम नहीं है, वह पूरा जीवन नहीं जी सकता, वह सुखी और अच्छा जीवन नहीं जी सकता। मैं समझता हूं कि इन तीनों तथ्यों का प्रारंभ से ही प्रशिक्षण होना चाहिए। ये तीनों तथ्य जीवन से संबंधित हैं और इनकी अजानकारी के कारण बचपन से ही अनेक भ्रांतियां व्यक्ति के दिमाग में घर कर जाती हैं। और-और बातें पढ़ाई जाती हैं, बताई जाती हैं, पर ये बातें न अध्यापक बताते हैं, न धर्मगुरु बताते हैं और न माता-पिता बताते हैं। इन तथ्यों की अजानकारी के कारण जीवन में अनेक बुराइयां पनपती हैं। इसीलिए न शरीर स्वस्थ रहता है और न मन। स्मृति क्षीण हो जाती है, बुद्धि कमजोर और कल्पनाशक्ति मंद। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि प्रतिक्रमण किया जाए। प्रायश्चित मनोग्रंथियों को खोलने का उपाय है। जो मनोग्रंथियां अज्ञान के कारण बन गई हैं, उनके खुलने पर सारा मार्ग साफ हो जाता है। प्रायश्चित करने वाला व्यक्ति न केवल आध्यात्मिक दोषों से बचता है, पर वह मानसिक और शारीरिक बीमारियों से भी बच जाता है। जो लोग प्रायश्चित करते हैं, वे भयंकर-से-भयंकर बीमारी से मुक्त हो जाते हैं। कैंसर, अल्सर, हार्टट्रबल-ये केवल शरीर के रोग नहीं हैं, ये मनोकायिक रोग हैं। ये मन से, भावना से, इमोशन और आवेगों से होने वाले रोग हैं। आवेग करते समय ऐसा भान नहीं होता कि कोई रोग होगा। पर रोग होता है, पीड़ा देता है, तब पता चलता है कि 17 कर्मवाद