________________ है। वह परतंत्र है पर पूरा परतंत्र भी नहीं है। यदि वह पूरा परतंत्र होता तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। उसका मनुष्यत्व ही समाप्त हो जाता और चेतना का अस्तित्व ही नष्ट हो जाता। चेतना रहती ही नहीं। उसका अपना कुछ रहता ही नहीं। वह कठपुतली बन जाता। कठपुतली पूर्णतः परतंत्र होती है। उसे जैसे नचाया जाता है वैसे नाचती है। कठपुतली नचाने वाले के इशारे पर चलती है। उसका अपना कोई अस्तित्व या कर्तृत्व नहीं है, चेतना नहीं है। जिसकी अपनी चेतना नहीं होती वह परतंत्र हो सकता है, पर शत-प्रतिशत परतंत्र तो वह भी नहीं होता। __ प्राणी चेतनावान् है। उसकी अपनी चेतना है। जहां चेतना का अस्तित्व है, वहां पूरी परतंत्रता की बात नहीं होती। दूसरी बात है-काल, कर्म आदि जितने भी तत्त्व हैं वे भी सीमित शक्ति वाले हैं। दुनिया में असीम शक्ति-संपन्न कोई नहीं है। सबमें शक्ति है और उस शक्ति की अपनी मर्यादा है। काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये शक्ति-संपन्न हैं, पर इनकी शक्ति अमर्यादित नहीं है। लोगों ने मान रखा है कि कर्म सर्वशक्तिसंपन्न है। सब कुछ उससे ही होता है। यह भ्रान्ति है। यह टूटनी चाहिए। सब कुछ कर्म से नहीं होता। यदि सब कुछ कर्म से ही होता तो मोक्ष होता ही नहीं। आदमी कभी मुक्त नहीं हो पाता। चेतना का अस्तित्व ही नहीं होता। कर्म की अपनी एक सीमा है। वह उसी सीमा में अपना फल देता है, विपाक देता है। वह शक्ति की मर्यादा में ही काम करता है। ____ व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म अर्जित करता है। वह फल देता है, पर कब देता है, उस पर भी बंधन है। उसकी मर्यादा है, सीमा है। मुक्तभाव से वह फल नहीं देता। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये सारी सीमाएं हैं। प्रत्येक कर्म का विपाक होता है। माना जाता है कि दर्शनावरणीय कर्म या विपाक होता है तब नींद आती है। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, अभी आपको नींद नहीं आ रही है। आप दत्तचित्त होकर प्रवचन सुन रहे हैं तो क्या दर्शनावरणीय कर्म का उदय या विपाक समाप्त हो गया? दिन में नींद नहीं आती तो क्या दिन में दर्शनावरणीय कर्म 162 कर्मवाद