________________ एक लाख रुपयों का रुक्का लिखाकर कोषाध्यक्ष के पास पहुंचा। कोषाध्यक्ष ने राजाज्ञा देखी, पर कहां-आज तो पारितोषिक मिला ही है, दो-चार दिन बाद रुपये मिल जायेंगे। अब यह व्यक्ति प्रतिदिन कोषाध्यक्ष के पास जाता है, पर मुंह लटकाए लौट आता है। कोषाध्यक्ष उसे टरकाता जाता है। यह कोषाध्यक्ष है अन्तराय कर्म। यह बाधा उपस्थित करता है। शक्ति को कार्य में व्याप्त नहीं होने देता। दिनों, महीनों और वर्षों तक व्यवधान बना रहता है और कार्य होता नहीं। ... हमारे जीवन के सारे महत्त्वपूर्ण पक्ष कर्म के साथ जुड़े हुए हैं। इन सबका फलित होता है-अतीत से बंधा वर्तमान। हमारा वर्तमान अतीत से बंधा हुआ है। आदमी कहां है स्वतन्त्र! वह न ज्ञानार्जन करने में स्वतन्त्र है, न सही दृष्टिकोण करने में स्वतन्त्र है, न चरित्र का विकास और शक्ति का उपयोग करने में स्वतन्त्र है न इस शरीर और शरीर के साथ उत्पन्न होने वाली स्थितियों से निपटने में स्वतन्त्र है। वह पकड़ा हुआ, जकड़ा हुआ और बन्दी बना हुआ बैठा है। पुनः यही प्रश्न होता है कि कहां है आदमी स्वतन्त्र? कहां उत्तरदायित्व है अपने व्यवहार और आचरण के प्रति? कौन है उत्तरदायी? कर्मवादी दार्शनिक कहेगा-तुम कहां स्वतंत्र और उत्तरदायी हो? स्वतन्त्र है कर्म। उत्तरदायी है कर्म। तुम्हारी न कोई स्वतन्त्रता और न उत्तरदायित्व। अब हम पुनः एक बार दृष्टि डालें। कालवादी दार्शनिक सारा बोझ काल पर लाद देता है, स्वभाववादी दार्शनिक सारा भार स्वभाव पर डाल देता है, नियतिवादी दार्शनिक सब कुछ नियति को मानकर मुक्ति पा लेता है। ठीक इसी प्रकार कर्मवादी दार्शनिक सब कुछ कर्म को मानकर अकेला हो जाता है, पीछे खिसक जाता है। बड़ी समस्या, बड़ा आश्चर्य कि काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये सब प्रधान बन गए और चेतनावान् मनुष्य गौण हो गया। ये सब आगे आ गए, मनुष्य पीछे चला गया। क्या इस स्थिति को यों ही स्वीकार कर चलें? यदि इस स्थिति को स्वीकार करें तो फिर ध्यान, साधना करने की जरूरत ही क्या है? धर्म-कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है? जैसा कर्म और नियति है, वैसा अपने 158 कर्मवाद