SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर के संस्थान; ये सभी सहभागी होते हैं। इसलिए किसी एक शास्त्र के द्वारा हम परिवर्तन की प्रक्रिया का सर्वांगीण अध्ययन नहीं कर सकते। ध्यान की प्रक्रिया द्वारा मानसिक परिवर्तनों पर नियंत्रण किया जा सकता है. इसलिए योगशास्त्र को भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। अपृथक्त्व अनुयोग की शिक्षा प्रणाली में प्रत्येक विषय पर सभी नयों से अध्ययन किया जाता था, इसलिए अध्येता को सर्वांगीण ज्ञान हो जाता था। आज की पृथक्त्व अनुयोग की शिक्षा प्रणाली में एक विषय के लिए मुख्यतः तद्विषयक शास्त्र का ही अध्ययन किया जाता है, इसलिए उस विषय को समझने में बहुत कठिनाई होती है। उदाहरण के लिए मैं कर्मशास्त्रीय अध्ययन को प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक कर्मशास्त्री पांच पर्याप्ति के सिद्धांत को पढ़ता है और वह इसका हार्द नहीं पकड़ पाता। पर्याप्तियां छह हैं। भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति को स्वतंत्र मानने पर पर्याप्तियों की संख्या छह होती है। भाषा पर्याप्ति और मनः-पर्याप्ति को एक मानने पर वे पांच होती हैं। प्रश्न है भाषा और मन की पर्याप्ति को एक क्यों माना जाए। स्थूल दृष्टिकोण से भाषा और मन दो प्रतीत होते हैं। भाषा के द्वारा विचार प्रकट किए जाते हैं और मन के द्वारा स्मृति, कल्पना और चिन्तन किया जाता है। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर वह प्रतीति बदल जाती है। भाषा और मन की इतनी निकटता सामने आती है कि उसमें भेदरेखा खींचना सहज नहीं होता। गौतम स्वामी के एक प्रश्न के कई उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-वचनगुप्ति के द्वारा मनुष्य निर्विचारता को उपलब्ध होता है। निर्विचार व्यक्ति अध्यात्म-योग-ध्यान से ध्यान तो उपलब्ध हो जाता है। विचार का सम्बन्ध जितना मन से है, उतना ही भाषा से है। जल्प दो प्रकार का होता है-अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प। बहिर्जल्प को हम भाषा कहते हैं। अन्तर्जल्प और चिन्तन में दूरी नहीं होती। चिन्तन भाषात्मक ही होता है। कोई भी चिन्तन अभाषात्मक नहीं हो सकता। स्मृति, कल्पना और चिन्तन-ये सब भाषात्मक होते हैं। व्यवहारवाद के प्रवर्तक वॉटसन (Watson) के अनुसार चिन्तन अव्यक्त शाब्दिक व्यवहार है। उनके अनुसार चिन्तन-व्यवहार की प्रतिक्रियाएं वाक्-अंगों (Vocal Organs) में होती हैं। व्यक्ति शब्दों को 302 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy