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________________ हम बाहर कर रहे थे, वह आनन्द हमारे भीतर है। दो बातें हैं-एक है बाहर से आना और दूसरी है जो भीतर हैं और पता लग जाना। 'कस्तूरी मृग नाभि मांहि, वन-वन फिरत उदासी', 'पानी में मीन पियासी'-ये उक्तियां इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं कि आनन्द भीतर पड़ा है, पर आदमी उसे जान नहीं पाता। कस्तूरी की सुगंध आती है तो मृग उस सुगंध में लुब्ध होकर उसे खोजने इधर-उधर दौड़ता है। वह नहीं जानता कि कस्तूरी उसी की नाभि में विद्यमान है और उसी की गंध आ रही है। इसी प्रकार आनंद आदमी के घट में भरा पड़ा . है, पर वह उसे बाहर-ही-बाहर ढूंढता है। आनन्द भीतर है, किन्तु उस पर इतने आवरण आ गये, उस ज्योति पर इतना राख आ गई कि ज्योति का कहीं पता ही नहीं चल पाता। ज्योति का प्रकाश नहीं है, वह राख से ढकी हुई है। ध्यान का प्रयोग है उस राख को हटाने का प्रयोग। जब स्मृति और कल्पना का आवरण हट जाता है तब वास्तविकता उद्घाटित हो जाती है। ____एक भक्त योगी के पास गया। उसने कहा-'महाराज! अब आप ही मुझे बचा सकते हैं। दर-दर भटका हूं। अंतिम शरण में आया हूं। अत्यन्त दीन-हीन अवस्था में जी रहा हूं। बहुतों की शरण ली, पर सर्वत्र धोखा-ही-धोखा मिला। अब आपके पास आया हूं। मेरी झोली भर दें।' संन्यासी पिघल गया। उसने कहा-'सामने जो थैला टंगा हुआ है, उसमें एक पत्थर है। वह ले जाओ, बेड़ा पार हो जायेगा।' भक्त उठा। उस पत्थर को निकाला। पूछा-'इस पत्थर का क्या करूंगा?' संन्यासी बोला-'यह पत्थर नहीं है, पारसमणि है। इससे लोहा सोना बनता है।' भक्त ने पूछा-'कैसे?' संन्यासी ने उसी झोले में से चिमटा निकाला, पारसमणि ने उसे छुआ, वह सोने का हो गया। भक्त बोला-'यह धोखा है। यह तो आपके हाथ की करामात है। चिमटा और मणि-दोनों थैले में ही तो थे। इतने दिन तक यह सोने का क्यों नहीं हुआ?' संन्यासी ने कहा- 'भक्त! तुम नहीं समझे। अभी तक पारसमणि एक कपड़े में लपेटा हुआ था। उस पर कपड़े का आवरण था। वह हटा और लोहा 184 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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