________________ सम्बन्ध जीवन से है, वैसे ही कर्म का सम्बन्ध जीव से है। उसमें अनेक जन्मों के कर्म या प्रतिक्रियाएं संचित होती हैं। इसलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिंदु में ही नहीं खोजा जाता, उससे परे भी खोजा जाता है, जीव के साथ प्रवहमान कर्मसंचय (कर्मशरीर) में भी खोजा जाता है। . कर्म का मूल मोहनीय कर्म है। मोह के परमाणु जीव में मूर्छा उत्पन्न करते हैं। दृष्टिकोण मूर्छित होता है और चरित्र भी मूर्छित हो जाता है। व्यक्ति के दृष्टिकोण, चरित्र और व्यवहार की व्याख्या इस मूर्छा की तरतमता के आधार पर की जा सकती है। मेक्डूगल के अनुसार व्यक्ति में चौदह मूल प्रवृत्तियां और उतने ही मूल संवेग होते हैंमूल प्रवृत्तियां मूल सवेग 1. पलायनवृत्ति भय 2. संघर्षवृत्ति क्रोधः 3. जिज्ञासावृत्ति कुतूहल भाव 4. आहारन्वेषणवृत्ति 5. पित्रीयवृत्ति वात्सल्य, सुकुमार भावना 6. यूथवृत्ति एकाकीपन तथा सामूहिकता भाव 7 विकर्षणवृत्ति जुगुप्सा भाव विकर्षण भाव 8 कामवृत्ति कामुकता ... 6 स्वाग्रहवृत्ति स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना 10. आत्मलघुतावृत्ति हीनता भाव 11. उपार्जनवृत्ति स्वामित्व भावना, अधिकार भावना 12. रचनावृत्ति सृजन भावना 13. याचनावृत्ति दुःख भाव 14. हास्यवृत्ति उल्लसित भाव कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं, और उसके अट्ठाईस ही विपाक हैं। मूल प्रवृत्तियों और मूल संवेगों के साथ 300 कर्मवाद