________________ आश्रव है। इसके द्वारा कर्म परमाणु आकर्षित होते हैं। वे चैतन्य को आवृत करते हैं-ज्ञान और दर्शन की क्षमता पर आवरण डालते हैं। वे आत्मा के सहज आनन्द को विकृत कर, उसके दृष्टिकोण और चरित्र में विकार उत्पन्न करते हैं। वे आत्मा की शक्ति को स्खलित करते हैं। कुछ कर्म-परमाणु शरीर-निर्माण और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं। इस प्रकार आश्रव बंध का निर्माण करता है और बंध पुण्य-कर्म और पाप-कर्म के द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है। जब तक आत्मा केवलज्ञान के अनुभव की अवस्था को प्राप्त नहीं होता, तब तक वह वर्तुल चलता ही रहता है। जीव में भी अनन्त शक्ति है और पुद्गल में भी अनन्त शक्ति है। जीव में दो प्रकार की शक्तियां होती हैं 1. लब्धिवीर्य-योग्यतारूप शक्ति। 2. करणवीर्ण शक्ति-क्रियात्मक शक्ति। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा, 'भन्ते! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध करता है?' भगवान्-'करता है।' 'भंते! कैसे?' 'प्रमाद से। 'भंते! प्रमाद किससे होता है?' . 'योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) से।' 'भंते! योग किससे होता है?' 'वीर्य (प्राण) से। 'भंते! वीर्य किससे होता है?' 'शरीर से। 'भंते! शरीर किससे होता है?' 'कर्म-शरीर से। 'भंते! कर्म-शरीर किससे होता है?' 'जीव से। आप उलटे चलिए। जीव से शरीर, शरीर से क्रियात्मक शक्ति, 266 कर्मवाद