Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 300
________________ हैं। साधनों से धन मिलता है। हम यह मानते चले जाएं कि सारा धन पुण्य के द्वारा ही मिलता है, यह सही नहीं है। मुझे लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की खामियों को कर्म के साथ जोड़ दिया गया और उस भ्रान्ति ने आदमी को दिग्मूढ़ बना दिया। आज भी वह दिग्मूढ़ता कर्मवाद और भाग्यवाद के नाम पर हिन्दुस्तान को सता रही है। किसी का ध्यान उस ओर नहीं जाता। कर्मवाद को पदार्थ के साथ न जोड़ें। इस बात को और गहराई से समझें कि यदि धन का सम्बन्ध कर्मवाद से होता और यदि कर्म के द्वारा ही यह सब कुछ प्राप्त होता, यदि यह कर्म का ही परिणाम होता तो अध्यात्म के आचार्य धन को छोड़ने या राज्य को त्यागने की बात क्यों कहते? वे सम्पदाओं को न भोगने की बात क्यों कहते? भगवान महावीर ने अपरिग्रह पर जितना बल दिया, उतना और किसी ने नहीं दिया। उन्होंने कहा, 'परिग्रह एक संज्ञा है।' पदार्थ दुनिया में होता है। दुनिया का धन दुनिया में होता है। उससे हमारा न कुछ बनता है और न कुछ बिगड़ता है। कुछ भी नहीं होता। जब व्यक्ति के साथ पदार्थ का सम्बन्ध जुड़ता है तब परिग्रह की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है। महावीर से पूछा गया, 'भन्ते! परिग्रह की संज्ञा क्यों उत्पन्न होती है?' महावीर ने कहा, 'जब मोहनीय कर्म का उदय होता है तब परिग्रह की संज्ञा बनती है। परिग्रह के प्रति आकर्षण होना, परिग्रह के प्रति आसक्ति होना और परिग्रह के साथ ममकार का जुड़ जाना, मोहनीय कर्म का, पाप कर्म का उदय होना है। पुण्य का उदय नहीं होता। उन्होंने अर्थ-व्यवस्था का कोई सूत्र नहीं दिया। जो धर्म के क्षेत्र में काम करने वाले लोग हैं वे अर्थ के क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप नहीं करते। अर्थ के विषय में चिन्तन करना समाज के चिन्तकों का, समाज के कर्णधारों का, राजनीति के संचालकों का काम है। फिर भी अध्यात्म के लोगों ने जो मूलभूत तथ्य दिए, वे बहुत ही महत्त्व के हैं। हमने विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था की बात सुनी है। यह बात महात्मा गांधी के बाद बहुत उजागर हो गई। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था भी समाजवाद का ही एक रूप है। किन्तु इसका रूप कुछ भिन्न है। एक केन्द्रित 260 कर्मवाद

Loading...

Page Navigation
1 ... 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316