Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 304
________________ सकता। जिसके मन में परिग्रह की भावना है, वहां से हिंसा प्रारंभ होती है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। इसे हमें समझना है। सबसे पहला परिग्रह है-हमारा शरीर। हिंसा होती है शरीर की सुरक्षा के लिए। एक संस्कृत कवि ने लिखा है, 'सर्वारम्भाः तन्दुलप्रस्थमूलाः' -जितनी भी प्रवृत्तियां हैं, वे मात्र एक सेर चावल को प्राप्त करने के लिए हैं। सारी हिंसा पेट की आग को बुझाने के लिए है। ... .. परिग्रह में दूसरा स्थान आता है-परिवार और पदार्थ का। परिवार के पालन-पोषण के लिए पदार्थों का संग्रहण किया जाता है। एक मानसिक परिग्रह होता है, बड़प्पन के लिए, प्रतिष्ठा के लिए। फिर एक सिद्धांत बन जाता है। एक बार एक उद्योगपति से पूछा, 'आपके इतने धंधे हैं, इतने उद्योग हैं, फिर क्यों नये-नये खड़े कर रहे हैं?' उन्होंने कहा, 'महाराज' आज की अर्थ-व्यवस्था को आप नहीं जानते। आज की अर्थ-व्यवस्था का सिद्धांत है-Know How / एक कारखाने को सुचारु रूप से चलाने के लिए दूसरा कारखाना और दूसरे को चलाने के लिए तीसरा और तीसरे को चलाने के लिए चौथा आवश्यक होता है। इस . श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं आता। यह अन्तहीन शृंखला होगी। जहां विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था होती है वहां व्यक्ति अपनी सीमा बना लेता है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में भी सीमा होती है, व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होती है। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में भी व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होती है। भारतीय अर्थ-व्यवस्था के चिंतन में एक महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है-इच्छा-परिणाम। आज राजनीति के क्षेत्र में चाहे केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था हो या विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था हो, वहां व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा की बात कही जाती है। महावीर की आचार-संहिता में इच्छा-परिणाम शब्द है। दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में वह शक्ति के प्रयोग के द्वारा आता है। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में शक्ति का प्रयोग उतना नहीं होता किन्तु व्यक्ति की इच्छा से और समाज के कल्याण की दृष्टि से वह कार्य किया जाता है। इच्छा-परिणाम विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से किया जाए। 264 कर्मवाद

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