________________ है। हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा-ये सब कषाय की ऊर्मियां हैं। भय, शोक, घृणा, वासना-ये सब कषाय की उपजीवी ऊर्मियां हैं। इन ऊर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। जिन क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय का क्षण होता है। जिस क्षणों में हम संवदेन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षतः या परोक्षतः चेतना कषाय-मिश्रित होती है। सन्त राबिया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी एक पुस्तक को देखा। उसके पन्ने उलटने शुरू किए। एक पन्ने में लिखा था-'शैतान से नफरत करो।' राबिया ने उसे काट दिया। फकीर बोला-'यह क्या? इस पवित्र पुस्तक का वाक्य किसने काटा?' सन्त . राबिया ने कहा, 'यह मैंने काटा है।' फकीर ने पूछा, 'क्यों?' रबिया ने कहा, 'अच्छा नहीं लगा।' 'यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न लगे? क्या यह सही नहीं है?' फकीर ने पूछा। सन्त राबिया ने कहा, 'एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि सही नहीं है।' 'वह कैसे?' फकीर ने पूछा। सन्त राबिया ने कहा, 'जब तक मेरा प्रेम जागृत नहीं था, मेरी प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से नफरत करो, प्यार नहीं-यह वाक्य बहुत सही है। किन्तु अब मैं क्या करूं? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं बचा है। मैं घृणा कर ही नहीं सकती। प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो और इसके साथ घृणा।' हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं और किसी को अप्रिय। किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को प्रतिकूल। हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने शेष रहता है। उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय। न कोई इष्ट होता है और न कोई अनिष्ट। न कोई अनुकूल होता है और न कोई प्रतिकूल। इस 268 कर्मवाद