Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 291
________________ हो जाती है। समाजवादी व्यवस्था का आधार बाहरी परिवर्तन है। बाहर से घटित होने वाली समानता उतनी व्यापक और स्थायी नहीं होती जितनी व्यापक और स्थायी आन्तरिक परिवर्तन से घटित होने वाली समानता होती है। आंतरिक परिवर्तन से भी व्यवस्था का परितर्वन होता है और व्यवस्था के परिवर्तन से भी आंतरिक अवस्था में कुछ परिवर्तन संभव हो सकता है। निमित्त न मिलने पर कुछ उपादान भी निष्क्रिय हो सकते हैं, फिर भी इस सचाई को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आन्तरिक परिवर्तन के बिना व्यवस्था का परिवर्तन नियंत्रण के साथ ही चल सकता है। उसमें राज्यरहित राज्य की परिकल्पना संभव नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व नहीं बदलेगा, उत्तेजना, आवेश और वासना कम नहीं होगी, तब तक वह स्थिति उपलब्ध नहीं होगी। उक्त विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुंचा जा सकता है कि समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना होने पर भी कर्मवाद के सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती। यदि समानता के कारण कोई बाधा आती तो कर्मवाद का सबसे अधिक विशद वर्णन करने वाले जैन आगमों में कल्पातीत समानता का कोई उल्लेख नहीं मिलता। और वह मिलता है, इससे हम समझ सकते हैं कि आर्थिक समानता और कर्मवाद का सिद्धांत एक-दूसरे की उत्थापना करने वाले नहीं हैं। कर्मवाद का सम्बन्ध व्यवस्था से नहीं, हमारी आन्तरिक प्रक्रियाओं से है। जहां कर्मवाद को व्यवस्थाओं के साथ, समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के साथ जोड़ देते हैं, वहां उसकी व्यर्थता प्रतीत होने लग जाती है और उसके विषय में अनेक भ्रान्तियां पनप जाती हैं। यदि कर्मवाद को हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ें तो भ्रांतियां कभी नहीं पनप पाएंगी। हमारे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और अतिसूक्ष्म शरीर में होने वाले परिवर्तनों, रासायनिक परिवर्तनों और बदलते हुए विद्युत् प्रवाहों की सर्वांगीण व्याख्या कर्मवाद के संदर्भ को छोड़कर नहीं की जा सकती। हम कर्म और कर्म की सहायक सामग्री (नो-कम) को एक मान लेते हैं तब कठिनाई पैदा होती है, भ्रान्तियां पनपती हैं। व्यवस्था परिवर्तन को कर्म-विपाक के निमित्त के रूप में समझा . जा सकता है, किन्तु उसका सीधा सम्बन्ध कर्म के साथ स्थापित नहीं समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 281

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