Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 294
________________ विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद मनुष्य का सारा प्रयत्न उद्देश्य के साथ होता है। उसका मुख्य उद्देश्य है-सुख की प्राप्ति और दुःख विमुक्ति। कर्मवाद मानता है कि आदमी पुण्य करता है तो सुख पाता है और पाप करता है तो दुःख पाता है। दुनिया में कोई धनी है तो लोग कह देते हैं कि बड़ा भाग्यशाली है, बड़ा पुण्य किया है इसीलिए धनी है। कोई गरीब होता है तो लोग कह देते हैं-बेचारे ने बुरे कर्म किए थे। बुरे कर्मों का फल भोग रहा है। लोग सुख-दुःख को कर्म के साथ जोड़ देते हैं और कर्म को जोड़ देते हैं धन और पदार्थ के साथ। इस मान्यता का फल यह हुआ कि भ्रांति बढ़ गई। लोग कहने लगे, 'धन चाहिए तो धर्म करो, पुण्य करो।' कोई धर्म नहीं करता है तो लोग कहते हैं, 'अरे, तुम कोई धर्म नहीं करते, परलोक में जाकर क्या. खाओगे?' ऐसा लगता है कि लोगों ने धर्म-पुण्य और पदार्थ को बिलकुल मिला दिया। आचार्यों ने कहा, 'साधना के बिना मनुष्य का जन्म वैसे ही फालतू हो जाता है जैसे बकरी का सींग।' धर्म की साधना करो। धर्म की साधना की तो अर्थ और काम अपने आप प्राप्त होंगे। धर्म की साधना इसलिए जरूरी है कि काम की वासना समाप्त हो, परिग्रह की भावना समाप्त हो। किन्तु न जाने क्यों, कर्मवाद का एक ऐसा विकृत रूप सामने आया कि सब कुछ उससे मान लिया गया। यह एक प्रवाह ही चल पड़ा। धर्म के गुरु भी ऐसा ही कहने लग गए। उपाध्याय विनयविजयजी ने 'शांतसुधारस' काव्य में लिखा है 284 कर्मवाद

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