Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 295
________________ प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनांना, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् / मीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः, किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्मकल्पद्रुमस्य॥ धर्म कल्पवृक्ष है। दुनिया में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो धर्म से न मिले। राज्य धर्म से मिलता है। अच्छी पत्नी धर्म से मिलती है। बेटे और पोते धर्म से मिलते हैं। कविता की शक्ति और अच्छा गला भी धर्म से मिलता है। सारे गुण धर्म से मिलते हैं। यह एक ऐसा वृक्ष है जिसमें सब प्रकार के फल लगते हैं। एक प्रश्न है कि क्या सब कुछ धर्म से ही मिलता है? यह प्रश्न समाधान चाहता है। क्या सब कुछ अच्छे कर्मों से मिलता है? यदि मिलता है तो मोक्ष से वह स्थान कहां रह जाता है जहां धन, राज्य, परिवार आदि को छोड़ने की बात प्राप्त होती है। जब यह मान लिया गया कि सब कुछ पुण्य से मिलता है, धर्म से मिलता है तो इसका फलित यह हआ कि प्रवृत्ति पुण्य के अर्जन में लग गई। पुण्य का अर्जन प्रधान बन गया और पुरुषार्थ गौण हो गया। जबकि पुरुषार्थ द्वारा जो प्राप्त होता है वह प्रत्यक्ष है और पुण्य के द्वारा जो प्राप्त होता है वह प्रत्यक्ष . नहीं है। दूसरी बात यह हुई कि अर्थ-व्यवस्था के प्रति मनुष्य का ध्यान ही नहीं गया। व्यवस्था को बदलने की ओर ध्यान नहीं दिया गया। उसका ध्यान केवल इस ओर केन्द्रित रहा कि पुण्य करो, पुण्य कमाओ। उसने यह कभी नहीं सोचा-अपनी दुर्व्यवस्था को मिटाने के लिए अर्थ-व्यवस्था को ठीक करना आवश्यक है। सारा ध्यान पुण्य में अटक गया। फलतः बहुत बड़ी गरीबी छा गई। भारत की गरीबी में बहुत बड़ा हाथ है कर्मवाद, भाग्यवाद और पुण्यवाद की मान्यता का। यदि भारत में कर्मवाद की दुहाई नहीं दी जाती, भाग्यवाद और पुण्यवाद की ये धारणाएं प्रचलित नहीं होती तो हिन्दुस्तान आज जितना गरीब है, उतना गरीब नहीं होता। आदमी में पुरुषार्थ की लौ ऐसी बुझी कि उसे फिर से प्रज्वलित करना कठिन हो गया। आदमी पग-पग पर सोचता है-'भाग्य विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 285

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