________________ क्रियात्मक शक्ति से योग, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म-बन्ध-यह एक वर्तुल है। कर्म की कर्ता आत्मा है या कर्म? इस प्रश्न पर दो अभिमत हैं। सूत्रकार की भाषा में कर्म की कर्ता आत्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में कर्म का कर्ता कर्म है। ये दोनों सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। इनमें तात्पर्य-भेद नहीं है। मूल आत्मा (चिन्मय अस्तित्व) और आत्म-पर्याय (मूल आत्मा के निमित्त से निष्पन्न विभिन्न अवस्थाएं)-ये दो वस्तुएं हैं। इन्हें हम अभेद और भेद-दोनों दृष्टियों से देखते हैं। जब हम अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब कहा जाता है-आत्मा कर्म की कर्ता है और जब भेद की दृष्टि से देखते हैं तब कहते हैं-कर्म कर्म का कर्ता है। कर्म का कर्ता कषाय-आत्मा है। वह मूल आत्मा का एक पर्याय है। यदि मूल आत्मा कर्म की कर्ता हो तो वह कभी भी कर्म का अकर्ता नहीं हो सकती। उसका स्वभाव चैतन्य है, इसलिए वह चैतन्य की ही कर्ता हो सकती है। कर्म पौद्गलिक है, अचेतन है। वह उसकी कर्ता नहीं हो सकती। मूल आत्मा के आयतन में कषाय-आत्मा (राग और द्वेष) का वलय है। उसमें कर्म-पुद्गलों का आकर्षण होता है। वे कषाय को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार कषाय से कर्म और कर्म से कषाय चलता रहता है। मिथ्या दृष्टिकोण, आकांक्षा और आत्मविस्मृति-ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता हैं। किन्तु वास्तव में ये सब कषाय के उपजीवी हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है। किन्तु उसमें कर्म-पुद्गलों को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है। कषाय के क्षीण हो जाने पर केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले क्षण में कर्म-शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में भुक्त होकर तीसरे क्षण में निर्जीर्ण हो जाता है। ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भीत पर डाली गई, भींत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई। .. कर्म की तीन अवस्थाएं होती हैं-स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट। कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से स्पृष्ट होते हैं। कर्म का दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर ही होता कर्मवाद 267