________________ मान, माया, लोभ) की तीव्रतम अवस्था (अनन्तानुबंधी) का विलय होने पर सम्यक्दर्शन उपलब्ध होता है। जिस व्यक्ति में आवेग की वह तीव्रतम अवस्था क्षीण या उपशांत नहीं होती, उसे सम्यक्दर्शन उपलब्ध नहीं होता, फिर चाहे वह कितनी ही बार नौ पदार्थों को रट जाये और उनको कंठस्थ कर उच्चारण करता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक यथार्थ में व्यक्ति देश-विरति श्रावक नहीं बन सकता, चाहे फिर वह कितनी ही बार त्याग हो दोहराता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की तीसरी अवस्था (प्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक वह मुनि-साधक नहीं बन सकता, फिर चाहे वह कितनी ही बार दीक्षित क्यों न हो जाये। जब तक व्यक्ति में आवेग की चौथी अवस्था (संज्वलन) का क्षय नहीं होता, तब तक व्यक्ति वीतराग नहीं बन सकता, वह चारित्र की उत्कृष्ट कोटि-यथाख्यात को नहीं पा सकता। हम अंतरंग और बहिरंग-दोनों पर ध्यान दें,। केवल बहिरंग साधना पर्याप्त नहीं है। जब तक कषाय का विलय नहीं होगा, अंतरंग का स्पर्श नहीं होगा, तब तक आध्यात्मिक चेतना उपलब्ध नहीं होगी। बहिरंग साधना से व्यवहार की पूर्ति तो हो सकेगी, किंतु आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पायेगा। ___ कर्मशास्त्र के रहस्यों को समझे बिना हम आध्यात्मिक विकास के सूक्ष्म रहस्यों को नहीं समझ सकते। उन सूक्ष्म रहस्यों को समझे बिना आध्यात्मिक चेतना के अंतरंग पथ को नहीं पकड़ सकते। इसलिए हमें कर्मशास्त्र की गहराइयों में उतरकर उसके रहस्यों को पकड़ना होगा। वीतराग की ओर बढ़ने के लिए जो एक बाधा बनी रहती है, वह है आकांक्षा। व्यक्ति कभी पूजा का आकांक्षा हो जाता है, कभी उसकी इच्छा प्रिय वस्तुओं को भोगने की ओर अग्रसर होती है, कभी अनुकूलता चाहता है, मनोज्ञता चाहता है, अमनोज्ञता से बचना चाहता है। यह सब आशंसा से उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति 'जहावाई तहाकारी' नहीं होता, जैसा कहता है, वैसा करने वाला नहीं होता, कहता कुछ है और करता कुछ है, यह स्थिति जब तक समाप्त नहीं होती, तब 88 कर्मवाद