Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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________________ सुन रहा हूं। जिस प्रकार की चर्चा मुनिजी ने प्रस्तुत की है, यदि इसको विस्तार दिया जाए, खोज की जाए तो भारत 'जीन' के विषय में पाश्चात्य देशों को नयी देन दे सकता है। हमारे पास अतुल सामग्री है। . कर्मवाद का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो 'जीन' की बात उसके समक्ष बहुत छोटी रह जाती है। पर आज का आदमी गहराई में जाना नहीं चाहता। उसकी वृत्ति सिनेमावादी हो गई है। सीधा गाओ, सीधा देखो। गहरे में उतरने की मनोवृत्ति बहुत कम है। कर्मवाद की आधारभूमि बहुत दृढ़ है। छोटी-छोटी बातों से उसको उखाड़ा नहीं जा सकता। यह वज्रमय प्रासाद, जो खड़ा किया गया है, यह पवन के झोंकों से ढह नहीं सकता। हमें गहराई में जाने की आवश्यकता है। कर्मवाद परितर्वनों का महान् सूत्र है। उसका ठीक उपयोग करें। आदतें बदलती हैं, व्यसन छूटते हैं, व्यक्तित्व बदलता है, इसमें कर्मवाद बाधा उपस्थित नहीं करता। ऐसा नहीं कहता कि कर्म में ऐसा ही लिखा हुआ था, भाग्यरेखा ऐसी ही थी। जो आदमी ऐसा करता है, वह भयंकर भूल करता है और जीवन के प्रति अन्याय करता है। आदमी भगवान् के भरोसे बैठा रहता है, भाग्य के भरोसे बैठा रहता है। वह सब पर भरोसा करता है, परं अपने पुरुषार्थ पर भरोसा नहीं करता। भटक गया है आदमी। उसका पहला काम तो यह था कि वह अपने पुरुषार्थ पर पूरा भरोसा करे, फिर दूसरों पर भरोसा करे। दूसरों का भरोसा इतना लाभप्रद नहीं होता जितना लाभप्रद होता है अपने पुरुषार्थ का भरोसा। कर्मवाद का सिद्धांत प्रकाश-स्तंभ है। यह पूरे मार्ग को प्रकाशित करता है। परन्तु आदमी की भ्रांति के कारण, अज्ञान के कारण, उसने इस प्रकाश-स्तंभ को भुला दिया, उसका पूरा मार्ग अंधकारमय बन गया। प्रकाश अंधकार में परिणत हो गया। कर्मवाद निराशा पैदा करने वाला सिद्धांत नहीं है। यह पुरुषार्थ को उजागर करने वाला है। कर्मवाद के सही अर्थ को समझकर आदमी अपने पुरुषार्थ को उत्तेजित करे और हाथ पर हाथ रखकर बैठने की वृत्ति को छोड़े। न जाने कितने व्यक्ति निराश होकर पुरुषार्थ से प्राप्त 168 कर्मवाद
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