________________ उससे यदि सौ व्यक्ति संबंधित हैं तो सबको उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। घर का मुखिया है। वह सट्टे में धन हार गया। परिवार में पचास आदमी हैं। सबको उस हानि को भुगतना पड़ेगा। सबको अर्थाभाव का सामना करना पड़ेगा। यह परिणाम सामुदायिक बन गया। किन्तु संवेदन सामुदायिक नहीं बनता। सौ व्यक्तियों का संवेदन एक-जैसा नहीं होता। सबका संवेदन अलग-अलग होता है। सबसे तारतम्य रहेगा। घटना एक होती है, पर इतने प्रकार के संवेदन होते हैं कि एक व्यक्ति का संवेदन दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता। उदाहरण के लिए देखें, एक व्यक्ति का धन चला गया। बाप ने व्यवसाय में लाखों रुपये गंवा दिए। पुत्र सोचेगा-पिताजी ने यह क्या कर डाला? ऐसा व्यवसाय क्यों किया? हम कितने सम्पन्न थे, आज गरीब हो गए। वह रोता है, दुःख प्रदर्शित करता है। दूसरा पुत्र सोचता है-पिताजी ने ही तो धन कमाया था और वह उन्हीं के हाथों चुक गया। व्यवसाय में हानि-लाभ होता ही है। चिन्ता की क्या बात है? तीसरा पुत्र कहता है-ऐसा होना था, हो गया। शोक करने से क्या लाभ? चौथा पुत्र सोचता है-धन की प्रकृति है जाना-आना। हमारे पास दो हाथ हैं, दस अंगुलियां हैं, पुरुषार्थ करेंगे और फिर पैरों पर खड़े हो जाएंगे। सबकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हैं। सबका संवेदन भिन्न है। यह है संवेदन की वैयक्तिकता और परिणाम की सामूहिकता। इस प्रकार दो वर्ग बन जाते हैं१. उपादान और संवेदन-ये दोनों वैयक्तिक होते हैं। 2. निमित्त और परिणाम-ये दोनों सामूहिक होते हैं। इस सन्दर्भ में यदि कर्मवाद को समझा जाए तो जो करता है, वह भोगता है, यह कर्म की वैयक्तिकता भी सच है और एक के किए कर्म का परिणाम समूह को भुगतना पड़ता है, यह कर्म की सामाजिकता भी सच है। दोनों पक्ष मिलकर ही एक पूरा चित्र प्रस्तुत करते हैं। एक पक्ष पूरा चित्र नहीं बना सकता। हम अपनी दृष्टि को दोनों पक्षों के आधार पर संतुलित करें कि जब निमित्त की दृष्टि से विचार करते हैं, तो कर्म सामाजिक होता है और जब उपादान की दृष्टि से विचार करते हैं तो कर्म वैयक्तिक होता है। संवेदन की दृष्टि से सोचते हैं तो कर्म करे कोई, भोगे कोई 233