________________ है। प्रश्न है कि क्या ध्यान आत्मरति में ले जाता है? यदि वह आत्मरति में ले जाता है तो वह समाज के लिए हानिकारक है। ध्यान करने वाले समाज के विकास में बाधक बनते हैं, साधक नहीं। ध्यान करने वाले सब अन्तर्मुखी बन जाएंगे, फिर व्यवहार नहीं चल सकेगा। सारा विकास ठप्प हो जाएगा। फिर न समाज का अस्तित्व रहेगा और न राष्ट्र की उपयोगिता ही रहेगी। यह सारा आत्मरति का परिणाम है। किन्तु जब कर्म वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों प्रकार का होता है तो ध्यान भी इन दोनों स्थितियों में विलग नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति नितांत अन्तर्मुखी या नितान्त बहिर्मुखी नहीं हो सकता। ध्यान करने वाला नितान्त वैयक्तिक नहीं हो सकता और यदि एक प्रतिशत होता है तो वह अपवाद ही माना जाएगा। यह सामान्य स्थिति नहीं हो सकती। जो व्यक्ति ध्यान नहीं करता, कोरा बहिर्मुखी होता है, केवल बाहर-ही-बाहर देखता है, वह समाज के लिए सिरदर्द बन जाता है। जो नितान्त अन्तर्मुखी होता है, वह समाज के लिए सिरदर्द नहीं बनता, किन्तु अनुपयोगी बन जाता है। किन्तु मुझे लगता है कि ध्यान करने वाला न सिरदर्द बनता है और न अनुपयोगी बनता है। तर्कशास्त्र का एक नियम है-देहरी-दीपक न्याय। दीये को दहलीज पर रख दिया जाए। भीतर भी प्रकाश होगा और बाहर भी प्रकाश फैलेगा। ध्यान करने वाला स्वयं प्रकाशित होता है और समाज में अन्धकार नहीं फैलता, कुछ प्रकाश ही फैलता है। एक व्यक्ति ने ध्यान-साधना की। वह परिवार में गया। उसके परिवर्तित जीवन-व्यवहार से पूरा परिवार सुखी हो गया। ध्यान किया एक व्यक्ति ने और लाभ मिला पूरे परिवार को। एक व्यक्ति ने ध्यान-साधना की, उसकी स्मृति बढ़ी, मानसिक संतुलन बढ़ा, एकाग्रता का विकास हुआ, उसका बौद्धिक स्तर बढ़ा और वह परिवार का संभ्रान्त सदस्य बन गया। उसका परिणाम पूरे परिवार को मिला। लोग पूरे परिवार की प्रशंसा करने लगे। वैयक्तिकता और सामुदायिकता को अलग नहीं किया जा सकता। दोनों साथ-साथ चलते हैं। निमित्त और उपादान के बिना कोई काम नहीं होता। कर्मवाद का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि कर्म पुद्गल को 238 कर्मवाद