________________ मानता है, मस्तिष्क के अधीन रहता है और कौन व्यक्ति मन और मस्तिष्क को अपने अधीन में रखकर चलता है, उन पर अनुशासन करता है। मनुष्यों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। एक श्रेणी उन मनुष्यों की है, जो मन के अनुशासन में चलते हैं। दूसरी श्रेणी उन मनुष्यों की है, जो मन और मस्तिष्क को अपने अनुशासन में चलाते हैं। __मस्तिष्क-विज्ञान की खोजों से कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएं अभी-अभी प्राप्त हुई हैं। उनके अनुसार मस्तिष्क का जो रेटीकुलर फॉरमेशन-तान्त्रिक जालक है, वह उन न्यूरोन्स से बना है, जहां भय, क्रोध, लालसा आदि भाव जन्म लेते हैं और वह रेटीकुलर फॉरमेशन उन भावों का नियन्त्रण भी करता है। वे पैदा भी होते हैं और नियन्त्रित भी होते हैं। दोनों कार्य साथ-साथ चलते हैं। यदि उत्पन्न हों और साथ में नियन्त्रण की क्षमता न हो तो मनुष्य इतने आवेग में आ जाए कि शरीर की व्यवस्था ही लड़खड़ा जाए। शरीर के साथ यह एक वैज्ञानिक बात भी जुड़ी हुई है कि एक भाव पैदा होता है तो साथ में नियन्त्रण की बात भी रहती है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस रेटीकुलर फॉरमेशन की क्रिया को कर्मवाद की भाषा में औदारिक व्यक्तित्व और क्षयोपशमिक व्यक्तित्व कहा जाता है। ये दोनों व्यक्तित्व साथ-साथ चलते हैं। औदयिक व्यक्तित्व है इसलिए क्रोध, भय आदि भाव उत्पन्न होते हैं और क्षयोपशमिक व्यक्तित्व (चेतना की निर्मलता) है, इसलिए उन पर नियन्त्रण होता है। उत्पन्न होना और नियन्त्रण होना-दोनों अवस्थाएं साथ में चलती हैं। __मैं मानता हूं कि कर्मवाद की जो आन्तरिक धाराएं हैं, उनके अनुसार ही स्थूल शरीर के सभी अवयवों का निर्माण होता है। यह स्थूल शरीर, कर्म शरीर (सूक्ष्मतम शरीर) का संवादी शरीर है। जितनी प्रवृत्तियां, जितने प्रकंपन सूक्ष्म शरीर में होते हैं, उतने ही अंग, प्रत्यंग, अवयव इस स्थूल शरीर में बन जाते हैं। यह बिलकुल संवादी है। जो भाव जन्म लेते हैं, वे सारे कर्म के द्वारा संचालित हैं और वे नये कर्म का पुनः निर्माण करते हैं। यह एक वर्तुल है। कर्म के द्वारा निषेधक भावों का उत्पन्न होना और इन निषेधक भावों के द्वारा फिर कर्म का आगमन होना-यह भाव का जादू 245