________________ बनती है। जिस व्यक्ति को भय लगता है, वह यदि मैत्री अनुप्रेक्षा का प्रयोग करता है, वह भययुक्त हो जाता है। भय और मैत्री-दोनों साथ नहीं रह सकते। दोनों विरोधी हैं। मित्र से डर नहीं लगता। डर लगता है शत्र से। जिस किसी के प्रति शत्रता का भाव हो गया, जिस किसी के प्रति यह भाव बन गया कि यह हानि पहुंचाएगा तो उससे भय लगता है, उससे खतरे की सम्भावना बनी रहती है। जिससे खतरे की अनभति होती है, जिससे हानि की अनुभूति होती है, उससे डर लगता है। जिससे खतरे की अनुभूति नहीं होती, हानि की अनुभूति नहीं होती, उससे कभी डर नहीं लगता। जहां लाभ की बात आती है, वहां डर नहीं लगता। सब लाभ की ओर जाते हैं। क्योंकि वह अभय का स्थान है। हानि भय का स्थान है। जिस व्यक्ति ने मैत्री भावना का विकास किया है, जिसने मैत्री अनुप्रेक्षा की है, उसने अपने भाव-परिवर्तन के द्वारा भय के व्यूह को छिन्न-भिन्न कर डाला। यह है जाति का परिवर्तन. शक्ति का परिवर्तन। कर्म का परिणाम है भय। उसको अभय में बदल दिया। यह जात्यन्तर हो गया। जात्यन्तर की प्रक्रिया का नाम है-अनुप्रेक्षा। प्रेक्षा-ध्यान करने वाला जानता है कि अनुप्रेक्षा से पूर्व कायोत्सर्ग करना होता है। वह गहन सघनता, एकाग्रता, निष्ठा और आस्था के साथ निश्चित शब्दावली में पांच-दस मिनट तक सुझाव का प्रयोग करता है। पहले कुछ क्षणों तक उच्चारणपूर्वक, फिर मन-ही-मन इससे आन्तरिक परिणमन प्रारम्भ हो जाता है। भाव में वह शक्ति है कि वह पदार्थ को भी बदल सकता है, पदार्थ में परिणमन कर सकता है। हमारे आस-पास भय के परमाणु हैं, भीतर भी भय के परमाणु हैं। हमारा प्रत्येक भाव परमाणु से जुड़ा होता है, फिर चाहे वह किसी सीमा में रसायन बन जाए, किसी सीमा में विद्युत् का प्रवाह बन जाए, कुछ भी बन जाए। ये सारे कार्य परमाणुओं से घटित होते हैं। वे परमाणु अनुप्रेक्षा से रूपान्तरित होने लग जाते हैं। ___ परा-मनोविज्ञान की चार महत्त्वपूर्ण स्वीकृतियां हैं 1. पूर्वाभास, . 2. विचार-संप्रेषण, भाव का जादू 247