________________ की प्रक्रिया है। जगत् और शरीर को जानने का परिणाम होता है कर्म की शुद्धि। जगत् को समझने से संवेग होता है और काया को समझने से वैराग्य उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति जगत् के स्वरूप और स्थिति को जानता है, वह संवेग से भर जाता है। जो काया की स्थिति और स्वरूप को जान लेता है, वह वैराग्य से भर जाता है। जब वह सूक्ष्म शरीर-कर्मशरीर को देखता है जब वहां होने वाले प्रकम्पनों को जानने लगता है और वह समझ जाता है कि अमुक कर्म का अमुक परिणाम हो रहा है। उससे मन में विरक्ति पैदा होती है। जो व्यक्ति कर्म को नहीं जानता, कर्म के स्वभाव को नहीं जानता, वह पदार्थ के आकर्षण से मुक्त नहीं हो सकता। उसमें पदार्थासक्ति बनी रहती है। जो व्यक्ति कर्म के विषय में अनुचिन्तन करता है, कर्म की अनुप्रेक्षा करता है, वह कैसे कर्मों से बचेगा, जिसका परिणाम अनिष्ट होता है। परिणाम-प्रेक्षा, विपाक-दर्शन, कर्मबन्ध की स्थिति-इनका अनुचिन्तन वैराग्य उत्पन्न करता है। ऐसा अनुचिन्तन करने वाला व्यक्ति अनेक कर्मों से बचने का प्रयत्न करता है। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए कर्म को जानना बहुत आवश्यक है। इतना आवश्यक है कि जितना जीने के लिए श्वास आवश्यक है। जो कर्म के विषय में नहीं जानता, वह अध्यात्म के अर्थ को नहीं समझता। अध्यात्मवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण संधिस्थल है-कर्म का ज्ञान। प्रत्येक भाव के पीछे कर्म बना हुआ होता है। मन में हिंसा, झूठ, चोरी के भाव आते हैं, बुरे सपने आते है, उनमें शारीरिक और रासायनिक, दोनों कारण हैं। उन सबकी जड़ में जो छिपा हुआ कारण है, वह है कर्म। इस कर्म को जान लिया जाता है, तब स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है। कर्म को समझना अकर्म की दिशा में प्रस्थान करना है। __कर्म के दो रूप हैं-एक भीतर में है, जो परमाणु के रूप में विद्यमान है। एक कर्म जो प्रवृत्ति के रूप में सामने आ रहा है। जब तक आन्तरिक कर्म का शोधन नहीं होता, तब तक व्यावहारिक कर्म का शोधन नहीं हो सकता। उसके अभाव में सौहार्द, मैत्री, मृदुता आदि-आदि धर्मों का भी विकास नहीं हो सकता। जिसके मन में भय रहता है कि बुरे कर्म के परिणाम बुरे होते हैं, वह बुरे कर्मों से बच जाता है। यह बड़ा नियन्त्रण, अकर्म और पलायनवाद 257