________________ को मिटाना नहीं है, उसके दोष को समाप्त करना है। जब तक शरीर है, तब तक कर्म रहेगा। कोई भी शरीरधारी सभी कर्मों को छोड़ नहीं सकता। शरीर और जीवन की आवश्यकता है, तब कर्म रहेगा ही। आदमी कर्म को नहीं छोड़ सकता पर कर्म को अकर्म बना सकता है। उस व्यक्ति का कर्म कर्म होता है, जिसके साथ आसक्ति है, लेप है, तीव्र राग-द्वेष का अध्यवसाय है। उस व्यक्ति का कर्म अकर्म होता है, जिसमें प्रिय-अप्रिय संवेदन कम हो जाते हैं, आसक्ति और लिप्तता कम हो जाती है। अकर्म बनाना ही ध्यान का प्रयोजन है। जो व्यक्ति इस सचाई को समझ जाता है, वह पलायनवाद की भाषा में नहीं सोच सकता। वह सोचेगा कि सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के लिए, उन समस्याओं से जूझने के लिए ध्यान बड़ी शक्ति है, अचूक उपाय है। जब यह शक्ति आती है, तब समाज में शुद्धियां आती हैं। सभी अपराध इसीलिए पनपते हैं कि आदमी कर्म को अधिक महत्त्व देता है। चोरी, डकैती, संघर्ष, झगड़े-ये सारे कर्म के परिणाम हैं। इन्हें कभी रोका नहीं जा सकता। एक ओर धर्म को महत्त्व दिया जा रहा है और दूसरी ओर इन सभी अपराधों की रोकथाम की बात सोची जा रही है। वे लोग ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें हत्याएं, मारकाट, चोरियां और डकैतियां न हों। अपराध न हों। ये सारे कर्म के परिणाम हैं, स्फुलिंग हैं। कर्म हो और ये न हों, ऐसा कैसे हो सकता है। आग जलेगी तो चिनगारियां उछलेंगी। आग जले और चिनगारियां न हों, ऐसा हो नहीं सकता। जब कर्म की आग जलती रहती है, तब अपराध की चिनगारियों को मिटाया नहीं जा सकता। पर हम एक व्यवस्था कर सकते हैं। आग को अनुशासित करना होगा। चूल्हा इसीलिए बना कि आग अनियन्त्रित न हो, नियन्त्रित रहे। आग नियन्त्रित रहती है, तभी वह उपयोगी होती है। आग को अनुशासित करना आवश्यक है। कर्म को अनुशासित करना होता है। कर्म को अनुशासित करने का उपाय है-अकर्म। आचार्य उमास्वाति ने कहा-'जगत्कायस्वभावः संवेगवैराग्याभ्याम्'जगत् और शरीर के स्वभाव को जानना बहुत जरूरी है। उसको जानने के दो साधन हैं-संवेग और वैराग्य। यह जानने की प्रक्रिया अनुप्रेक्षा 256 कर्मवाद