________________ उचित है, महत्त्वपूर्ण है। इस प्रश्न को टाला नहीं जा सकता। धर्म का कार्य यदि पुराने संस्कारों को क्षीण करना, बुराई के संस्कारों को क्षीण करना, चेतना के आवरण को हटाना, मूर्छा और लालसा को मिटाना, भय-क्रोध, अभिमान-माया आदि वृत्तियों का परिष्कार करना, शोधन करना है तो फिर उस प्रश्न की कोई सार्थकता नहीं है। धन आदि उपलब्ध करना धर्म का काम नहीं है। आज आदमी यदि यह सोचता है कि मैंने धर्म किया, नैतिक आचरण किया और घाटे में रह गया तो मानना चाहिए कि आदमी ने धर्म को समझा ही नहीं, धर्म का आचरण किया ही नहीं। धार्मिक व्यक्ति कभी ऐसा सोच ही नहीं सकता। वह सोचता है, मैंने जो धर्म में पाया है, वह अधर्म करने वाला कभी नहीं पा सकता। __ एक संन्यासी काले कपड़े पहनकर गृहस्थ के घर भिक्षा लेने गया। गृहस्थ समझदार था। उसने पूछा-'महात्माजी! काले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?' संन्यासी बोला-'मेरा मित्र मर गया, इसलिए उसके शोक में मैंने काले कपड़े पहने हैं। यह शोक-चिह्न है।' 'आपका मित्र कौन था, क्या मैं जान सकता हूं?' गृहपति ने पूछा। संन्यासी ने कहा-'महाशय! मेरे मित्र थे-काम, क्रोध, भय, लोभ, माया। ये मेरे चिरपरिचित और दीर्घकाल से मेरे साथ रहने वाले मित्र थे। आज उनका अता-पता भी नहीं है। वे सब मुझसे अलग हो गए, मर गए। उनके वियोग में मैंने ये काले कपड़े पहने हैं।' गृहपति ने सोचा, यह कोई धूर्त है। मनुष्य-जीवन हो और काम, क्रोध आदि न हो, ऐसा हो नहीं सकता। यह कोई ठग है। उसने अपने नौकर से कहा-'यह संन्यासी धूर्त है, निकाल दो इसको घर से बाहर। नौकर ने हाथ पकड़कर उसे बाहर कर दिया। संन्यासी आगे बढ़ा। दस-बीस कदम गया होगा कि गृहपति ने पुनः नौकर से कहा-'जाओ, संन्यासी को बुला लाओ। बेचारा भूखा होगा। उसे भोजन तो करा दो। नौकर गया। संन्यासी मुड़ा और घर के दरवाजे पर आ गया। गृहपति ने रोष में कहा-'फिर आ गए! अभी-अभी यहां से निकाला था, फिर आ गए? शर्म नहीं आती!' फिर धक्का देकर निकाल दिया। नौकर को पुनः भेजकर उसे बुलाया। वह आया। फिर'तिरस्कृत कर पद-चिह्न रह जाते हैं 223