________________ पति का वियोग हो गया। अब धर्म का आचरण करने वालों के मन में प्रश्न खड़ा होता है कि देखो, मैंने इतना धर्म किया, इतना ध्यान किया, सत्संग किया, फिर भी इतनी बड़ी विपत्ति आ गई, इतना भयंकर कष्ट आ गया। फिर अन्तर क्या आया धर्म करने वालों में और धर्म न करने वालों में? बड़ी समस्या है। ऐसा कोई नियम होना चाहिए था कि जो धर्म में नहीं जाएगा, उसके बेटे भी मर सकते हैं, पत्नी भी मर सकती है और दूसरे वियोग भी हो सकते हैं। किन्तु जो व्यक्ति धर्म की शरण में चला जाता है, उसके न पति का वियोग होगा, न पत्नी का वियोग होगा, न पुत्र मरेगा, न बाप मरेगा, कोई वियोग नहीं होगा। यदि ऐसा कोई नियम होता तो कोई भी व्यक्ति अधर्म नहीं करता। कोई अधर्म में नहीं जाता। परन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है। नियम इसलिए नहीं है कि धर्म करने वाले के पास भी पुराना भंडार भरा हुआ है और धर्म न करने वाले के पास भी पुराना भंडार भरा हुआ है। दोनों अतीत के साथ जुड़े हुए हैं। आज जिस व्यक्ति ने धर्म की आराधना शुरू की, क्या उसका अतीत समाप्त हो गया? नहीं, अतीत उसके साथ सदा जुड़ा हुआ रहता है। भविष्य में अन्तर आ सकता है, पर अतीत का भंडार खाली नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति के साथ अनन्त अतीत जुड़ा रहता है। वह एक साथ समाप्त नहीं होता। जब तक वह समाप्त नहीं होता, जुड़ा रहता है, तब तक धर्म करने वाले में और धर्म न करने वाले में कोई अन्तर नहीं होता। केवल वर्तमान के आधार पर चिन्तन करना और निर्णय लेना तथा अतीत को विस्मृति के गर्त में डाल देना, समझदारी नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं सोचते कि हमने आज धर्म की आराधना प्रारम्भ की, ध्यान का प्रयोग शुरू किया, इससे हम अतीत के संस्कारों और बंधनों को कमकर पायेंगे, पर अनन्त अतीत को एक साथ समाप्त कैसे कर देंगे? इस भ्रान्ति को मिटाना चाहिए। इस भ्रान्ति के कारण न जाने कितने लोग मार्गच्युत होकर धर्म और ध्यान के विरोधी बन जाते हैं। अतीत का शोधन करना, अतीत के खजाने को खाली करना, अतीत के बंधन को काट डालना, अतीत के संस्कारों को समाप्त कर देना, यह है धर्म और ध्यान का परिणाम या उद्देश्य / अतीत के पद-चिह्न रह जाते हैं 225