________________ है। एक भण्डार भर जाता है। जब तक यह भण्डार केवल सत्ताकाल में रहता है, संचितकाल में रहता है, तब तक यह परिणाम नहीं देता। यह धारणा या संस्कार मात्र बना रहता है। यह अस्तित्वकालीन अवस्था है। किन्तु जैसे ही उद्दीपनों, निमित्तों का सहयोग मिलता है, तब वह संस्कार जाग जाता है। तब बंधा हुआ कर्म विपाक में आता है, उदयकाल में आता है और परिणाम देने लगता है। उस समय व्यक्ति की स्थितियां बदलने लगती हैं। जिस प्रकार का क्रम उदय में आया, वैसी ही स्थिति बन जाती है। यह दूसरा पदचिह्न है, या कर्मचिह्न है जो प्रबुद्ध होकर . व्यक्ति को प्रभावित करता है। ___व्यक्तित्व के निर्माण में दो प्रकार के तत्त्व कार्य करते हैं-बाह्य और आन्तरिक। देश, काल, परिस्थिति और वातावरण-ये व्यक्तित्व-निर्माण के बाह्य घटक हैं। जीन, आनुवंशिकता और कर्म-संस्कार-यह आन्तरिक घटक हैं। ये दोनों-बाह्य और आन्तरिकं-उद्दीपक तत्त्व हमारे साथ-साथ चलते हैं। इनसे घिरा हुआ आदमी अपने आपको कैसे बनाए? क्या बनाए? यह समस्या बहुत टेढ़ी है, जटिल है। इसीलिए कुछ प्रश्न आज उभरे हैं। ये प्रश्न आज के नहीं, हजारों-हजारों वर्षों से उभरते आ रहे हैं कि ज्ञान और आचरण तथा कथनी और करनी के बीच इतनी दूरी क्यों है? इस प्रश्न का आज तक समाधान नहीं हो सका। इतने प्रयत्नों के उपरान्त भी यह प्रश्न आज भी वैसे ही खड़ा है। आदमी इस खाई को पाटने में सक्षम नहीं हो पाया है। यदि यह सोचा जाए कि धर्म करने वाला या ध्यान करने वाला इन सारे प्रश्नों को समाहित कर देगा, तो यह भी भ्रान्ति होगी। यदि ऐसा होता तो आज तक ये प्रश्न समाहित हो जाते। एक प्रश्न सामने आया कि धर्म करने वाला बहुत दुःख पाता है और अधर्म करने वाला सुखमय जीवन जीता है। इसका कारण क्या है? महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। प्रश्नकर्ता प्रत्यक्षतः देखता है कि सचाई से चलने वाला, नैतिकता और ईमानदारी से चलने वाला अपने रहने के लिए साधारण-सा घर भी नहीं बना पाता, कार की बात तो दूर है। आधुनिक सुख-सुविधा के साधनों की प्राप्ति की बात दूर है; वह अपने बच्चों 220 कर्मवाद