________________ इतना बोझ ढो रहा है, फिर सिर भारी न हो, तनावग्रस्त न हो तो आश्चर्य मानना चाहिए। दो प्रकार का भार है। एक है धारणा का भार और दूसरा है संस्कार का भार। धारणा ज्ञानात्मक होती है। यह ज्ञन की प्रक्रिया है। कोई वस्तु सामने आयी। उसका ग्रहण हुआ। उस विषय में ऊहा और तर्क चला। एक निश्चय पर पहुंच गया। निश्चय के बाद फिर धारणा बन जाती है। धारणा का अर्थ है-स्मृतिचिह। जो बात धारणा में आ गई, अविच्युति में चली गई, उसकी स्मृति हो सकती है। तर्कशास्त्र के अनुसार धारणा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान है स्मृति। धारणा को स्मृतिचिह्न कहा जाता है। स्मृतिचिह्न होता है तब स्मृति होती है। यह ज्ञान की एक श्रृंखला है, एक क्रम है, यह ज्ञानात्मक स्मृतिचिह्न है। धारणा में होने वाला ज्ञान प्रबुद्ध हो जाता है। आदमी में कितनी-कितनी धारणाएं हैं। आदमी सुनता है, खाता है, देखता है, पढ़ता है, अनुभव करता है। इनके आधार पर हजारों-हजारों धारणाएं बनती हैं। किसी को देखने से मन में प्रेम उत्पन्न हो जाता है, किसी को देखने से मन में द्वेष उत्पन्न हो जाता है, किसी को देखने से विनम्रता की भावना जागती है और किसी को देखने से अहंकार जाग उठता है। विनम्रता, उद्दण्डता, प्रेम का प्रदर्शन और क्रोध का प्रदर्शन-ये सारे व्यवहार हैं। ये सब सहेतुक हैं। निर्हेतुक कुछ भी नहीं होता। प्रत्येक व्यवहार के पीछे एक धारणा होती हैं जैसी धारणा होती है, वैसा ही व्यवहार होता है। एक ही घटना, एक ही वस्तु और एक ही व्यक्ति के आस-पास अनेक अभिव्यक्तियां हो जाती हैं। जिसके साथ जैसी धारणा जुड़ी हुई होती है, वैसा ही व्यवहार और आचरण होता है। उस वस्तु या व्यक्ति के प्रत्यक्ष होने पर धारणा उभर आती है और फिर व्यक्ति वैसा ही व्यवहार करने के लिए बाध्य हो जाता है। यह है हमारी ज्ञानात्मक धारणा। . दूसरा भार है-संस्कार। धारणा और संस्कार में अधिक अन्तर नहीं है। धारणा है ज्ञानात्मक संस्कार और संस्कार है कर्मगत संस्कार। इसे कर्मशास्त्र की भाषा में बंध कहा जाता है। व्यक्ति का आचरण रागात्मक ... अथवा द्वेषात्मक होता है। उसी प्रकार परमाणुओं का एक संग्रह हो जाता पद-चिह्न रह जाते हैं 216