________________ जुड़ जाते हैं। वे पौद्गलिक या पारिमाणिक कर्म बन जाते हैं। हम इन दोनों प्रकार के कर्मों से जुड़े हुए हैं। इस स्थिति में एक नियम बन गया कि जहां चैतसिक कर्म है, राग-द्वेष-युक्त चैतन्य है, वहां परमाणुओं का संग्रहण होगा। वे कर्म परमाणु उस राग-द्वेष के अनुरूप ही अपना परिणाम प्रकट करेंगे। इस सिद्धान्त से कुछ बातें खोजी जा सकती हैं, कुछ घटनाओं को समझा जा सकता है। ___मुनि स्कंधक बहुत बड़े तपस्वी संत थे। किसी कारणवश उनके शरीर की सारी चमड़ी को उधेड़ दिया गया। मुनि उस अत्यन्त वेदनामय स्थिति में भी समभाव में रहे। इस घटना का विश्लेषण किया गया। यह प्रश्न उठा कि ऐसा क्यों हुआ? मुनि के शरीर की चमड़ी क्यों उधेड़ी गई? इसके संबंध-सूत्र की खोज प्रारम्भ हुई। उस खोज में यह ज्ञात हुआ कि स्कंधक अपने पूर्वभव के 'काचर' छील रहे थे। उन्होंने काचर को इतनी निपुणता से छीला कि उसका छिलका संलग्न रूप से उतर गया। वे अपनी इस निपुणता को सराहने लगे। अपनी निपुणता के प्रति इतनी मूर्छा और आसक्ति हो गई कि वे अपनी दक्षता पर फूले नहीं समाए। आसक्ति तीव्र होती गई। उस तीव्र आसक्ति ने इस प्रकार के चित्र का निर्माण किया, जिसने सघन और जटिल परमाणुओं का आकर्षण कर लिया। वे कर्म परमाणु जब विपाक में आए तब स्कंधक के शरीर की चमड़ी उधेड़ दी गई। इस सम्बन्ध-सूत्र की खोज में कर्म तक पहुंचा गया। कर्म के तीन प्रकार हैं-चित्त का कर्म, घटना का कर्म और परमाणु का कर्म। चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं-तीव्र, मध्यम और मन्द। चित्त में राग-द्वेष तीव्र होता है, मध्यम होता है और मंद होता है। एक आदमी अत्यन्त तीव्र आसक्ति से प्रवृत्ति करता है। वह उसके चित्त की तीव्र अवस्था है। एक आदमी जीवन-यापन के लिए नानाविध प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। न उसमें तीव्र आसक्ति है और न राग-द्वेष। वह केवल जीवन चलाने के लिए प्रवृत्ति करता है वह उसके चित्त की मंद अवस्था है। एक आदमी प्रवृत्ति करता है। और कभी-कभी उसकी सराहना भी कर देता है। उसकी प्रवृत्ति में कुछ आसक्ति रहती है और कुछ अनासक्ति। वह उसके चित्त 212 कर्मवाद