________________ साथ ही राग-द्वेष की तीव्रता, मंदता का अनुमान होता है और उसी के आधार पर कर्मबंध होता है। कैसे खाएं? कैसे चलें? कैसे बोलें? कैसे बैठे? कैसे सोएं? यही तो महत्त्वपूर्ण होता है। कैसे का फलित है भावक्रिया। जो कार्य किया जाए, उसी में तन्मय हो जाना। चलते समय केवल चलें, और कुछ न करें, यह है कैसे चलें का कर्म। इसी प्रकार समस्त क्रियाओं के साथ भावक्रिया होनी चाहिए। चलते समय शरीर चले, मन न चले। यह है गमनयोग। विषण्णयोग पद्मासन आदि की मुद्रा में किया जाता है। खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना स्थानयोग है। गमनयोग है चलते-चलते ध्यान करने की उत्कृष्ट स्थिति। इसमें शरीर चल रहा होता है, मन स्थिर रहता है। ध्यान से दो बातें स्पष्ट रूप से सीख ली जाती हैं-कब करना, क्यों करना? तीसरी बात है-कैसे करना? जब यह तीसरी बात समझ में आ जाती है, तब जानना चाहिए कि ध्यान निष्पन्न हो रहा है, ध्यान फलित हो रहा है। जो बीज बोया था, वह अब पौधा बन रहा है, पेड़ बनकर फल दे रहा है। ध्यान के सन्दर्भ में हम कर्मवाद की चर्चा कर रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण सूत्र हमारे पास है कि ध्यान से हमारी चेतना सूक्ष्म बने, चित्त और मन की स्थूलता मिटे। मन सूक्ष्म बने, चित्त सूक्ष्म बने, वाक् सूक्ष्म बने और हम सूक्ष्म सत्य के नियमों को पकड़ सकें। उन नियमों के आधार पर हम अतीत को व्याख्यायित कर सकते हैं और भविष्य को जान सकते हैं। आत्म-निरीक्षण के क्षणों में प्रत्येक व्यक्ति अपने अतीत को पढ़ सकता है और भविष्य को जान सकता है। वह जान सकता है कि अतीत में मैं क्या था और भविष्य में मरकर क्या होऊंगा? जिस व्यक्ति ने अपने चित्त को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया, उसने अपने भावी जीवन को देखना प्रारम्भ कर दिया। वह चैतसिक कर्म अथवा आस्रव को पढ़ना प्रारम्भ कर देता है। अतीत और भविष्य-दोनों के चित्र जब उद्घाटित होते हैं, तब वर्तमान की घटनाओं का अच्छा विश्लेषण किया जा सकता है। उस स्थिति में दूसरों पर दोषारोपण करने की बात समाप्त हो जाती है। फिर व्यक्ति घटना के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानने 216 कर्मवाद