________________ ही विकल्पातीत और तर्कातीत हो सकता है। तर्क अनुभव नहीं है। वह तार्किक 'घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतम्' के तर्क में उलझ गया। वह सोचता रहा। विकल्प प्रबल होता गया। उसने अन्तिम निर्णय के रूप में सोचा कि परीक्षण कर लूं कि घी पात्र में टिका हुआ है या पात्र घी में टिका हुआ है? उसने पात्र को उल्टा किया। घी नीचे गिरा और वह बोला-परीक्षण हो गया। सचाई हाथ लग गई कि 'घृताधारं पात्रं' है 'पात्राधार घृतं' नहीं है। घी पात्र में टिका हआ है, पात्र घी में टिका हुआ नहीं है। उसका विकल्प घी को ले डूबा। घी मिट्टी में मिल गया। . तर्क की भी एक सीमा होती है। कहां तर्क करना चाहिए और कहां नहीं, यह जानना आवश्यक होता है। नियति में कोई तर्क नहीं होता, वहां तर्क की पहुंच नहीं है। वह तर्क के द्वारा जानी नहीं जा सकती। वह तर्कातीत अवस्था है। मनुष्य के द्वारा निर्मित नियमों में तर्क का प्रवेश हो सकता है। यह नियम क्यों बना-ऐसा पूछा जा सकता है। मनुष्य नियम बनाता है तो उसके पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन होता है। निष्प्रयोजन नियम नहीं बनाए जाते। न्यायशास्त्र कहता है-'यत् यत् कृतकं तत् तत् अनित्यं'-जो कृतक-किया हुआ होता है, वह अनित्य होता है, शाश्वत नहीं होता। शाश्वत होता है अकृत, जो किया हुआ नहीं होता है। बस, यही उसकी मर्यादा है। मनुष्य का बनाया हुआ नियम शाश्वत नहीं होता, नियति नहीं होता। नियति शाश्वत है। उसके नियम स्वाभाविक और सार्वभौम होते हैं। वे अकृत हैं। बनाए हुए नहीं हैं, इसीलिए शाश्वत हैं। नियतिवाद की प्राचीन व्याख्या से हटकर मैंने यह नयी व्याख्या प्रस्तुत की है। मैं जानता हूं कि यह नियतिवाद की वैज्ञानिक व्याख्या है। जैन दर्शन ने इसी व्याख्या को स्वीकारा है। . ईश्वरवाद को मानने वाले सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर डाल देते हैं। वे कहते हैं-प्राणी बेचारा अत्यन्त अनजान है। वह अपने सुख-दुःख के विषय में क्या जाने! ईश्वर की प्रेरणा से ही वह स्वर्ग में जाता है और उसी की प्रेरणा से वह नरक में जाता है। सारा उत्तरदायित्व ईश्वर का है।