________________ इस प्रकार हमारा ज्ञान और दर्शन-दोनों आवृत्त हैं, अवरुद्ध हैं। हमारी दृष्टि और हमारा चारित्र भी मुक्त नहीं है। मोह-मूर्छा के द्वारा दृष्टि में विकार पैदा हो गया है। यह है दृष्टि का विपर्यास। इसलिए व्यक्ति ठीक देख नहीं पाता, ठीक निर्णय नहीं ले पाता। दृष्टि भी विकृत और चारित्र भी विकृत। मोह-मूर्छा के मीठे या जहरीले परमाणुओं के द्वारा ऐसा कोई विकार पैदा हो गया है; भोजन में मानो ऐसा कोई विष घुल गया है कि सारा शरीर ऐंठता जा रहा है। आज मनुष्य मूर्छा की स्थिति में जी रहा है। एक आदमी ने छककर शराब पी ली। वह भान भूल बैठा। अब वह न सही निर्णय ही ले सकता है और न सही ढंग से देख ही सकता है। न दृष्टि सही है, न चारित्र सही है और न व्यवहार सही है। सारा उल्टा-ही-उल्टा है। _. आठ कर्मों में एक कर्म है-मोहनीय। यह कर्म मदिरा की भांति हर व्यक्ति को मूर्छित बनाए हुए है। इस दुनिया में मदिरा पीने वाले लोग हैं तो मदिरा नहीं पीने वाले लोग भी हैं, किन्तु इस मोह की मदिरा को न पीने वाला मिलना दुष्कर है। हर आदमी इस मूर्छा से मूर्छित है। चेतना प्रमत्त है, अप्रमत्त नहीं है। ____जीवन के दो अभिन्न साथी हैं-सुख और दुःख। कभी सुख होता है तो कभी दुःख। यह युगल है। ये दोनों कभी अलग-अलग नहीं होते। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख। यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। कभी कहीं रुकता नहीं। सुख-दुःख भी कर्म से जुड़े हुए हैं। एक कर्म इस स्थिति को पैदा किए हुए है। उदाहरण की भाषा में समझाया गया है। एक तीक्ष्ण धारवाली तलवार है। उस पर मधु का लेप है। आदमी उस मधु को खाना चाहता है। वह जीभ से मधु को चाटता है। पर उस प्रक्रिया में उसकी जीभ कटे बिना नहीं रहती। मधु के मिठास का स्वाद और जीभ का कटना-दोनों साथ-साथ होते हैं। यह है वेदनीय कर्म। यह कर्म सुख और दुःख दोनों का घटक है। सुख के बहाने आदमी दुःख भोग रहा है। सुख की मिठास इतनी प्रबल है कि वह उसकी आकांक्षा को रोक नहीं पाता और वह