________________ सुख की लालसा में उस शहद की बूंद को पाना चाहता है। ‘मधुबिन्दु' का दृष्टान्त इसका स्पष्ट निदर्शन है। आदमी एक-एक बूंद मधु के लिए तरस रहा है। उसके साथ न जाने दुःखों का कितना अंबार लगा हुआ है। इसीलिए अध्यात्म के आचार्यों ने कहा कि जो सुख भोगा जा रहा है, वह सुख नहीं, वस्तुतः दुःख है, क्योंकि वह दुःख को जन्म देता है। सारा दुःख उसी के द्वारा पैदा किया जा रहा है। इसलिए सुख वास्तव में सुख नहीं है। दुःख ही है। सुख और दुःख दोनों कर्म से जुड़े हुए हैं। जन्म और मृत्यु का एक युगल है। यह भी कर्म से जुड़ा हुआ है। आदमी अपने ही कर्म से जन्म लेता है और अपने ही कर्म से मरता है। कर्म के अभाव में न जन्म है और न मृत्यु। दोनों कर्म से परतन्त्र हैं। एक बन्दी है, उसके पैरों में बेड़ी डाल दी। वह बंदी तो है ही। पैरों में बेड़ी और पड़ गई, अब वह सर्वथा परतन्त्र हो गया। जन्म और मृत्यु-दोनों आयुष्य कर्म से बंधे हुए हैं। ____ आदमी इस शरीर को अपना अस्तित्व मान रहा है। इस शरीर के आधार पर आदमी क्या-क्या नहीं करता। इस शरीर के आधार पर कितनी मूर्च्छनाएं हो रही हैं, कितनी विडंबनाएं हो रही हैं। इसी शरीर के द्वारा स्वभाव विस्मृत हो रहा है, विभाव उभरकर आ रहा है। यह शरीर भी हमारी स्वतन्त्र सृष्टि नहीं है। यह भी कर्म से बंधा हुआ है। इसका घटक है-नामकर्म। अद्भुत चितेरा है यह। शरीर की रचना आश्चर्यकारी है। इस दुनिया में मनुष्य ने अनेक आश्चर्यकारी कार्य किए हैं। किन्तु शरीर-रचना के संदर्भ में आदमी आज भी बौना है। शरीर एक अद्भुत कारखाना है। दुनिया का कोई भी संयंत्र शरीर-यंत्र की तुलना नहीं कर सकता। एक भी संयंत्र ऐसा नहीं है जो मनुष्य की कोशिकाओं का निर्माण कर सके, मनुष्य के मस्तिष्क का निर्माण कर सके। आज इतने वैज्ञानिक निर्माण कार्य में लगे हुए हैं। टेस्ट ट्यूब में प्राणी को वे जन्म देने में सफल हुए हैं। वे कृत्रिम वर्षा भी करते हैं। परन्तु प्राकृतिक वर्षा होती है, मेंढक टर्राने लग जाते हैं। घंटे-भर में हजारों प्राणी अस्तित्व में आ जाते हैं। आदमी ऐसा नहीं कर सकता। वह आज भी दरिद्र है अपने कर्तृत्व में। कहां है उसमें इतनी शक्ति 156 कर्मवाद