________________ चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहासुभे नाम मेगे सुभविवागे, सुभे नाम मेगे असुभविवागे, असुभे नाम मेगे सुभविवागे, असुभे नाम मेगे असुभविवागे। (ठाणं 4 / 603) एक होता है शुभ, पर उसका विपाक होता है अशुभ। दूसरे शब्द में बंधा हुआ है पुण्य कर्म, पर उसका विपाक होता है पाप। बंधा हुआ है पाप कर्म, पर उसका विपाक होता है पुण्य। कितनी विचित्र बात है! यह सारा संक्रमण का सिद्धांत है। शेष दो विकल्प सामान्य हैं। जो अशुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक अशुभ होता है और जो शुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक शुभ होता है। इन दो विकल्पों में कोई विमर्शणीय तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरा और तीसरा-ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और संक्रमण के सिद्धांत के प्ररूपक हैं। संक्रमण का सिद्धान्त पुरुषार्थ का सिद्धान्त है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुभ शुभ में और शुभ अशुभ में बदल जाता है। इस संदर्भ में हम पुरुषार्थ का मूल्यांकन करें और फिर सोचें कि दायित्व और कर्तृत्व किसका है? हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि सारा दायित्व और कर्तृत्व है पुरुषार्थ का। अच्छा पुरुषार्थ कर आदमी अपने भाग्य को बदल सकता है। अनेक बार निमित्तज्ञ बताते हैं-भाई! तुम्हारा भाग्य अच्छा है, पर अच्छा कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वे अपने भाग्य का ठीक निर्माण नहीं करते, पुरुषार्थ का ठीक उपयोग नहीं करते। पुरुषार्थ का उचित उपयोग न कर सकने के कारण अच्छा कुछ भी नहीं हुआ और बेचारा ज्योतिषी झूठा हो गया, उसकी भविष्यवाणी असत्य हो गई। ज्योतिषी ने किसी को कहा कि तुम्हारा भविष्य खराब है। उस व्यक्ति ने उसी दिन से अच्छा पुरुषार्थ करना प्रारम्भ कर दिया और उसका भविष्य अच्छा हो गया। सुकरात के सामने एक व्यक्ति आकर बोला-'मैं तुम्हारी जन्म-कुंडली देखना चाहता हूं।' सुकरात बोला-'अरे! जन्मा तब तो जन्म कुंडली बनी 170 कर्मवाद