________________ याद आती है। मैं अपनी पहली पुस्तक 'जीव-अजीव' लिख रहा था। उस समय हमारे संघ के मुनि रंगलालजी (बाद में वे संघ से पृथक् हो गए) के सामने मेरी पुस्तक का एक अंश आया। उसमें चर्चा थी कि पाप को पुण्य में बदला जा सकता है और पुण्य को पाप में बदला जा सकता है। मुनि रंगलालजी ने कहा- 'यह नहीं हो सकता। इस पर पुनश्चितन करना चाहिए।' मैंने सोचा-आगम के विशेष अध्येता मुनि ऐसा कह रहे हैं, मुझे पुनः सोचना चाहिए। मैंने सोचा, पर मेरे 'चिन्तन में वही बात आ रही थी। मैंने संक्रमण पर और गहराई से चिन्तन किया। पर निष्कर्ष वही आ रहा था, जो मैंने लिखा था। मैंने उन मुनि से कहा-'क्या वह संभव नहीं है कि किसी ने पाप कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में वही व्यक्ति अच्छा पुरुषार्थ करता है तो क्या जो कुफल देने वाला है, वह पुण्य के रूप में नहीं बदल जाएगा? इसी प्रकार एक व्यक्ति ने पुण्य कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में इतने बुरे कर्म किए, बुरा आचरण और व्यवहार किया, तो क्या वे पुण्य के परमाणु पाप के रूप में नहीं बदल जाएंगे? उन्होंने कहा- 'ऐसा तो हो सकता है।'. मैंने कहा-'यही तो मैंने लिखा है। यही तो संक्रमण का सिद्धान्त है।' एक कथा के माध्यम से यह बात और स्पष्टता से समझ में आ जाती है-दो भाई थे। एक बार दोनों एक ज्योतिषी के पास गए। बड़े भाई ने अपने भविष्य के बारे में पूछा। ज्योतिषी ने कहा- 'तुम्हें कुछ ही दिनों के पश्चात् सूली पर लटकना पड़ेगा। तुम्हें सूली की सजा मिलेगी।' छोटे भाई ने भी अपना भविष्य जानना चाहा। ज्योतिषी बोला-'तुम भाग्यवान् हो। तुम्हें कुछ ही समय पश्चात् राज्य मिलेगा, तुम राजा बनोगे।' दोनों आश्चर्यचकित रह गए। कहां राज्य और कहां सूली की सजा! असंभव-सा था। दोनों घर आ गए। बड़े भाई ने सोचा-ज्योतिषी ने जो कहा है, संभव है वह बात मिल जाए। अब मुझे संभलकर कार्य करना चाहिए। वह जागरूक और अप्रमत्त बन गया। उसका व्यवहार और आचरण सुधर गया। उसे मौत सामने दीख रही थी। जब मौत सामने दीखने लगती है तब हर आदमी बदल जाता है। बड़े-से-बड़ा नास्तिक भी मरते-मरते आस्तिक बन जाता है। ऐसे नास्तिक देखे हैं जो जीवन-भर 168 कर्मवाद