________________ नहीं होता, वह भिक्षु कैसे हो सकता है? जिसका वह संकल्प ही नहीं कि मैं जीवन-भर मुनि बना रहूंगा, वह लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित कैसे हो सकता है? जिस व्यक्ति की पृष्ठभूमि में मोह-विलय की इतनी प्रेरणा नहीं कि वह साधना के प्रति सदा के लिए समर्पित हो जाये, वह गृहस्थ-साधु हो सकता है, किन्तु गृहत्यागी अनगार साधु कैसे हो सकता है? इस मोह-विलय के तारतम्य के आधार पर, इस कर्म की प्रेरणा की वास्तविकता के आधार पर महावीर ने यह अनिवार्य बात जोड़ी कि कोई मुनि बनेगा तो वह आजीवन के लिए बनेगा, यावज्जीवन के लिए होगा, अल्पकाल के लिए नहीं। क्योंकि जब प्रत्याख्यानावरण का विलय नहीं है, तो मुनित्व आ नहीं सकता। मुनित्व और श्रावकत्व की हमारी व्यावहारिक कल्पना है। सम्यक् दर्शन की भी एक व्यावहारिक कल्पना है। जहां संघ और समाज होता है, संगठन होता है, वहां व्यवहार भी चलता है। किन्तु व्यवहार व्यवहार होता है, उसमें वास्तविकता बहुत कम होती है। निश्चय वास्तविक होता है। निश्चय सत्य की उपलब्धि निश्चय के द्वारा होती है। निश्चय को हम छोड़ दें और केवल व्यवहार पर चलें तो जो सत्य उपलब्ध होना चाहिए वह उपलब्ध नहीं होता। अनेकांत दर्शन के दो पक्ष हैं-व्यवहार और निश्चय। अनेकांत का पंछी निश्चय और व्यवहार-इन दोनों पंखों को फड़फड़ाकर उड़ता है। एक पंख से वह उड़ नहीं पाता। एक पंख उसका काटा नहीं जा सकता, न व्यवहार को काटा जा सकता है और न निश्चय को काटा जा सकता है। . जब हम व्यवहार की भाषा में चलते हैं, तब जीव आदि नौ पदार्थों को जानना सम्यक्दर्शन माना जाता है। श्रावक के व्रतों को स्वीकार कर लिया, यह हो या पांचवां गुणस्थान अर्थात् श्रावकत्व, देशविरति की प्राप्ति। पांच महाव्रतों को स्वीकार कर लिया, छठा गुणस्थान आ गया, सर्वविरति की अवस्था प्राप्त हो गयी। यह है व्यवहार की भाषा का स्वीकार। किंतु जब हम कर्मशास्त्रीय भाषा में सोचते हैं, निश्चय की भाषा में सोचते हैं, तब हमें कहना होगा कि आवेग चतुष्टय (क्रोध, आवेग : उप-आवेग 87