________________ पर दोनों जैसे पहले खड़े थे, वैसे ही निश्चल खड़े हैं। न कोई हलन-चलन है, न कोई विक्षोभ है और न कोई रोष है। कुछ समय बीता। ध्यान संपन्न हुआ। दोनों ने आंखें खोलीं। चरवाहा वृक्ष से नीचे उतरा। उसने कहा-'मुनि महाराज! एक काला नाग आया था, आपको पता है?' 'नहीं, हम नहीं जानते। 'आपको उसने तीन बार डंक लगाए, क्या दर्द नहीं हुआ?' - 'हम नहीं जानते, काटा होगा!' 'आप पर जहर का असर नहीं हुआ? आप मरे नहीं?'' 'अरे भाई! हम यहां थे ही नहीं। किसको काटा हम नहीं जानते।' 'ओह! मेरे सामने सांप ने आपके शरीर पर डंक लगाए। यह सब मैंने अपनी खुली आंखों से देखा है। उस समय मेरा मन कांप रहा था। करुणा आ रही थी और आप कहते हैं हमें तो पता नहीं है। आश्चर्य! आश्चर्य! ___भाई! हम शरीर में नहीं थे। नाग ने शरीर को काटा होगा, हमें ज्ञात नहीं है।' जब शरीर की पकड़ होती है, तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड़ जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। शरीर की पकड़ छूटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी तो शरीर का भान नहीं रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभावित रहेगा। जब प्राण और चेतना-दोनों भीतर चले जाते हैं, उनका समाहार हो जाता है तब शरीर पड़ा है, उसे सांप काटे, कोई भी काटे, कुछ असर नहीं होगा चेतना पर। यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपान्तरित होती है प्रेक्षा के द्वारा। वह परिष्कृत और परिमार्जित होती है ज्ञाता-द्रष्टा भाव के द्वारा। उस स्थिति में दोनों प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता। यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा में। यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है। ____ आज रासायनिक और वातावरण की दृष्टि से हमने स्वतंत्रता और परतंत्रता के पहलू पर विचार किया। अब एक बहुत बड़ा आयाम हमारे सामने है कर्म की दृष्टि से। कर्म की दृष्टि से हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र, इस पर हमें चर्चा करनी है। 142 कर्मवाद