________________ सीमित ही उसकी सत्ता है और सीमित ही उसका प्रभाव है। इसलिए हम स्वतंत्र भी हैं। स्वतंत्र हैं इसीलिए आवेगों को शांत करने की हमारी मनोवृत्ति है, कामना है। हम आवेगों को शांत कर सकते हैं-इसीलिए हमारी साधना है। यदि हम आवेगों को शांत नहीं कर सकते तो साधना व्यर्थ है। यदि हम यह मानते ही चले जायें कि जैसा कर्म में लिखा है वही होगा, साधना लिखी है तो साधना आ जायेगी, अधिक बोलना लिखा होगा तो अधिक बोलेंगे, झगड़ा करना लिखा होगा तो झगड़ा करेंगे-तब तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। जैसा लिखा है वैसा होगा। किन्तु यह भ्रांति है। . साधना का मूल सूत्र यही है कि कर्म ही सब कुछ नहीं है। साधना का मूलं प्रयोजन है कि आत्मा अपने स्वरूप में आ जाये, जाग जाये, जागरण की एक चिनगारी भी मिल जाये। बस, इतना पर्याप्त है। यह मार्ग मिल जाये तो फिर साधक बिना रोक-टोक आगे बढ़ सकता है, आत्मा को पूर्ण अनावृत करने में सक्षम हो सकता है। 118 कर्मवाद