________________ न हो, राग-द्वेषमय क्षण न बीते। संवर की साधना स्वयं निष्पन्न होगी। यही साधना की पूरी सार्थकता है। तब साधना देशकालातीत साधना बन जाती है। अभी हमारी साधना देशकालातीत नहीं है। हमारी साधना देशबद्ध और कालबद्ध है। देशबद्ध और कालबद्ध साधना का परिणाम भी तात्कालिक होता है। साधना वह होनी चाहिए जो देश और काल से आबद्ध न हो, उनसे बंधी हुई न हो। आप किसी भी देश में चले जायें, किसी भी काल में चले जायें, किसी भी काल में रहें किन्तु चैतन्य के अनुभव की एक ज्योति, एक प्रकाश रेखा जो फूटी है वह विकसित हो, आगे से आगे बढ़ती जाए। कभी भी वह बुझे नहीं। वह लौ और वह प्रकाशरेखा कभी भी दूर न जाए। इस ओर हमारा प्रयत्न हो। इससे पूर्व कर्म-बंध के सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जा चुकी है। अब कर्म-मुक्ति के कुछ सूत्र प्रस्तुत कर रहा हूं। कर्म-मुक्ति का सबसे बड़ा सूत्र है-संवर और तप। तपस्या के विषय में कुछ सोचें। जिनको खपाना है, जिनको दूर करना है, उनमें पहला तत्त्व है मूर्छा का। सबसे पहला माध्यम है-देहासक्ति। यहां से मूर्छा प्रारंभ होती है। भगवान् महावीर ने तप के बारह सूत्र बतलाए। उनमें पहला है-अनशन। मत खाओ। दूसरा है-ऊनोदरी। कम खाओ। तीसरा है-रस-परित्याग। रसों को छोड़ी। जिवेन्द्रिय पर संयम रखो। चौथा है-वृत्तिसंक्षेप। खाने के विविध प्रयोग करो। पांचवां है-कायक्लेश। शरीर को साध लो। इतने कष्ट-सहिष्णु बन जाओ, आसनों के द्वारा इतनी शक्ति पैदा कर लो कि जिससे कोई भी स्थिति आये तो शरीर उसे झेल सके। ये पांच सूत्र देहासक्ति से मुक्त होने के सूत्र हैं। आहार की आसक्ति भी देहासक्ति है। यह देहासक्ति का ही एक परिणाम है। जब ये पांच सूत्र सध जाते हैं। तब देहासक्ति टूट जाती है। ___ जब यह हो जाता है तब प्रतिसंलीनता की बात आती है। यह कर्म-मुक्ति का छठा सूत्र है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-इन्द्रियों को अंतर्मुखी बनाना। जिस रास्ते से इन्द्रियां बाहर जा रही हैं, उसे बन्द कर दो। नया मार्ग खोल दो। मार्गान्तरीकरण कर दो। जो इन्द्रियां केवल बाहर कर्मवाद के अंकुश 125