________________ की प्रक्रिया है। चारित्र संवर की प्रक्रिया है। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान होता है। तीन क्षण हैं-एक है अतीत का क्षण, एक है वर्तमान का क्षण और एक है भविष्य का क्षण। बीता हुआ क्षण अतीत है, आने वाला क्षण भविष्य है और इन दोनों के बीच का क्षण वर्तमान है। संवर वर्तमान के क्षण में होता है। जिसने अतीत का प्रतिक्रमण और भविष्य का प्रत्याख्यान किया तो प्रत्युपन्न क्षण, जो क्षण उत्पन्न हो रहा है, उस क्षण में अपने आप संवर हो जाएगा। जो आस्रव चल रहा है, उसका प्रतिक्रमण करें। उस आस्रव से आप अपने स्वभाव में लौट आएं। अपने चैतन्य के अनुभव को छोड़कर आप राग-द्वेष के अनुभव में चले गये थे, अब राग-द्वेष के अनुभव को छोड़कर पुनः चैतन्य के अनुभव में आ जाएं, संवर हो जायेगा। राग-द्वेष के अनुभव से वापस लौट आना एक प्रतिक्रमण है। आप संकल्प करें कि आप राग-द्वेष के क्षण में नहीं जाएंगे। जब यह संकल्प दृढ़ हो जाता है तब राग-द्वेष के अनुभव से आप लौट आते हैं। पुनः आप उस अनुभव में नहीं जाएंगे। दोनों ओर से राग-द्वेष का अनुभव समाप्त हो जायेगा। यह बीच का क्षण वर्तमान का क्षण, अतीत और भविष्य के वीच का क्षण, चैतन्य के अनुभव का क्षण हो जायेगा, संवर हो जाएगा। असंयम के द्वारा आस्रव के द्वार खुलते हैं। मन का असंयम, इन्द्रियों का असंयम, शरीर का असंयम होता है तब द्वार खुलते हैं। अनियंत्रित स्थिति में खुलना स्वाभाविक है, उच्छृखलता स्वाभाविक है। जब उच्छृखलता होती है, खुलना होता है तब किसी का भी आना स्वाभाविक बन जाता है। उस समय संवर नहीं हो सकता। हमने संयम किया। संयम का कार्य है, जो आ रहा था उसे रोक दिया। चारित्र का कार्य है, जो पहले था उस खजाने को खाली कर दिया। असंयम क्यों होता है? हमने कुछ विजातीय द्रव्य का संचय कर रखा है। वह अपने साथियों को नियंत्रित करता है। हमने अपने ही रागद्वेष के कारण असंयम को पाला और असंयम ने मोह का संग्रह किया, मुर्छा का संयम किया, कषाय को प्रबल बनाया। वही मूर्छा और वही मोह दूसरे-दूसरे कर्म परमाणुओं के लिए स्वागत का द्वार खुला रख रहा है। आओ, आओ, एकत्र हो जाओ। कर्मवाद के अंकुश 121