________________ असातवेदनीय का उदय हो गया। मन उसमें ही जाता है, साधना में नहीं जाता। मन की सारी ऊर्जा पैर की ओर ही बहने लग जाती है। साधना का वह स्पर्श भी नहीं कर पाती। असातवेदनीय के उदय का एक कारण है-पटुगल का परिणाम। जैसे-बहत खा लिया, भूख से अधिक भोजन कर लिया। अजीर्ण हो गया। पेट में दर्द प्रारम्भ हो गया। अब सारा मन उसी ओर भागता है, विपाक की ओर जाता है, साधना की ओर नहीं जाता। पुद्गल के परिणाम के कारण जो असात का विपाक होता है, उसे हम बदल सकते हैं। इसलिए यह कहा जाता है-अधिक मत खाओ। भोजन की मात्रा का ज्ञान करो। साधना के क्षेत्र में भोजन पर ध्यान देने की बात भी महत्त्वपूण बन जाती है। साधना करने वाले व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि कब खाए? क्यों खाए? कितना खाए और कैसे खाए? दही खूब खा लिया और ध्यान के लिए बैठ गया। ध्यान में नींद सताने लगी। यह दर्शनावरणीय कर्म का विपाक है। इसमें दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का कारण बना. हमारा भोजन। इसलिए ऐसा भोजन न किया जाये जो असातवेदनीय या दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का निमित्त बने। बहुत तेज मिर्च-मसाले खा लिये, तामसिक भोजन किया और साधना में बैठ गये। मन में उत्तेजनाएं उभरने लगीं, विकृतियां पैदा होने लगीं, ध्यान से मन हट गया। तो हमने भोजन की परिणति के द्वारा विपाक को निमंत्रित कर दिया। इसलिए यह आवश्यक है कि हम विपाकों के निमित्तों पर भी ध्यान दें। उपादान का महत्त्व है तो निमित्त का भी कम महत्त्व नहीं है। अपने स्थान पर वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कैसे बैलें, क्या खाएं, कैसे खाएं, कितना खाएं, किस वातावरण में रहें-ये सारी बातें बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं। कुछ बातें हमारे वश की होती हैं और कुछ हमारे नियंत्रण से बाहर की होती हैं। जैसे-वर्षा का मौसम है। आकाश बादलों से आच्छन्न है। ऐसे वातावरण में दर्शनावरणीय कर्म के उदय को मौका मिल जाता है। नींद आने लगती है। यह हमारी भूल का परिणाम नहीं है। हमने अधिक खाया, अवांछनीय भोजन किया और नींद ने आ घेरा। यह हमारी भूल का परिणाम है। हमने अपनी भूल के कारणं कर्म के विपाक को 100 कर्मवाद