________________ किसी ने आकर कहा-भाई! तुम तो निहाल हो गये। तुम्हारे नाम की लाटरी में दो लाख रुपये उठे हैं। उसने कहा-दो लाख! यह कहते ही वह धड़ाम से नीचे गिरा और इस लोक से चल बसा।. . अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहन करने के लिए तितिक्षा की चेतना जागृत होनी चाहिए। कोई व्यक्ति बड़ी-से-बड़ी स्थिति में है। उसको बड़ी-से-बड़ी उपलब्धि है। सारे अनुकूल संयोग हैं। अकस्मात.सब छिन जाते हैं। सत्ता छिन जाती है, अधिकार छिन जाते हैं। संपदा नष्ट हो जाती है, परिवार बिखर जाता है। उस स्थिति में प्रतिकूलता को सहने की चेतना यदि जागृत नहीं होती तो व्यक्ति दिग्भ्रान्त हो जाता है। जिसकी यह चेतना जागृत होती है, उसके लिए अनुकूलता या प्रतिकूलता में कोई अन्तर नहीं आता। __जैन आगमों में नमि राजर्षि का एक उदाहरण आता है। व्यवहार की दुनिया में वह शायद मान्य न हो, किन्तु वह उस चेतना का प्रतीक है, वह उस चेतना का दिग्दर्शक है, जिस चेतना के बिन्दु पर पहुंचकर व्यक्ति की तितिक्षा की चेतना इतनी जागृत हो जाती है कि उसके लिए कोई भी प्रकम्पन शेष नहीं रहता। न. राग का प्रकंपन होता है और न द्वेष का प्रकंपन होता है। नमि राजर्षि से कहा गया-आपका अंतःपुर जल रहा है। उसमें आग लग गयी है। लपटें आकाश को छू रही हैं। आपका प्रासाद जल रहा है, आपका नगर जल रहा है। नमि राजर्षि ने कहा-मैं सख से जी रहा हूं, सुख से रह रहा हूं। किसका अंतःपुर! किसका प्रासाद! किसका नगर! मेरा कुछ भी नहीं है। मिथिला के जलने पर भी मेरा तो कुछ भी नहीं जल रहा है। यह कितना अव्यावहारिक कथन लगता है। कितनी करुणाहीन बात लगती है। कोई करुणावान व्यक्ति ही ऐसा कह सकता है? परम कोटि का क्रूर व्यक्ति ही ऐसी बात कह सकता है। किन्तु हम बहुत बार भूमिका-भेद को समझे बिना भयंकर भूल कर बैठते हैं। वह भी हमारी भयंकर भूल होगी, यदि हम नमि राजर्षि की स्थिति की क्रूरता से परिपूर्ण मानें। यह उस तितिक्षा की, उस परम चेतना की स्थिति है, जहां पहुंचकर 102 कर्मवाद