________________ स्वतंत्र या परतंत्र? द्रव्य का अपना-अपना स्वभाव होता है। स्वभाव कभी भी निर्मूल नहीं होता, उसे कभी निरस्त नहीं किया जा सकता। विभाव स्वभाव को कुछ विकृत भी कर सकता है, आवृत भी कर सकता है, किन्तु निरस्त नहीं कर सकता, शून्य नहीं कर सकता। आवेग चैतन्य का स्वभाव नहीं है। वह चैतन्य के साथ उत्पन्न मूढ़ता है। वह मोह है, विकृति है, किन्तु स्वभाव नहीं है। इसीलिए यह संभावना शेष रहती है कि आवेग को निरस्त किया जा सकता है। उस योग को दूर किया जा सकता है जो आकर जुड़ गया है। उसे काटा जा सकता है। उसे काटने के अनेक उपाय हैं, अनेक साधन हैं। उन सब साधनों में महत्त्वपूर्ण साधन है-चैतन्य का अनुभव, संवर शुद्ध उपयोग। जब हम चैतन्य के अनुभव में होते हैं तब संवर की स्थिति होती है, हमारा संवर होता है। जब चैतन्य का अनुभव होता है तब कोई आवेग हो नहीं सकता। आवेग तब होता है जब हमारा चैतन्य का अनुभव लुप्त हो जाता है। जब चैतन्य पर मूर्छा छा जाती है, जब चैतन्य पर ढक्कन आ जाता है तब आवेग को उभरने का अवसर मिलता है। जब चैतन्य की अनुभूति होती है तब आवेग आ ही नहीं सकता। . ___ हमारी साधना का सूत्र है-चैतन्य का सतत अनुभव। जब चैतन्य के अनुभव की स्थिति निरंतर बनी रहती है तब हमारा संवर पुष्ट होता रहता हैं। संवर के आते ही द्वार बन्द हो जाएगा। चैतन्य का अनुभव होते ही सब द्वार बन्द हो जाएंगे। कोई द्वार खुला नहीं रहेगा। सब द्वार बन्द, सब खिड़कियां बन्द। उस समय न आवेग आ सकता है, न उत्तेजना आ सकती है और न वासना आ सकती है। कुछ भी नहीं स्वतंत्र या परतंत्र? 107 .