________________ विकसित होती हैं। आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है मोहकर्म के विलय से। कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जाता है कि जब मोहकर्म उपशान्त होता है, क्षीण होता है, तब आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है। आध्यात्मिक विकास की पूरी गाथा मोह के विलय से जुड़ी हुई है। मोह प्रबल है तो आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो सकता, चाहे फिर वह कितना ही बड़ा विद्वान् बन जाये, वैज्ञानिक बन जाये या और कुछ बन जाये। बडे-बडे बौद्धिक लोग भी आत्महत्या कर अपनी प्रखर बौद्धिक जीवन-लीला को समाप्त कर देते हैं। उनमें अन्तर्द्वन्द्व होता है। वे उसको समाहित नहीं कर पाते। जो मानसिक समस्याएं एक सामान्य मनुष्य में होती हैं, वे सारी-की-सारी एक बड़े-से-बड़े बौद्धिक में हो सकती हैं। वे समस्याएं उसको इसलिए प्रताड़ित करती हैं, इसलिए आत्महत्या करने को बाध्य करती हैं कि उनमें बौद्धिक चेतना का तो पूर्णरूपेण विकास होता है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना सुषुप्त है, विकसित नहीं है, जागृत नहीं है। जब तक आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं हो जाता, तब तक समस्याओं के व्यूह को नहीं तोड़ा जा सकता। उनके प्रवाह को नहीं रोका जा सकता। ___बौद्धिक और आध्यात्मिक, इन दोनों के विकास का हमारे जीवन में एक पूरा वृत्त बनता है। दोनों का समन्वय होना चाहिए। इन दोनों की समन्विति ही जीवन का सर्वोच्च विकास है। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए मोह को समझना जरूरी है। ____ मोह का मूल है-राग और द्वेष। राग और द्वेष के द्वारा एक चक्र घूम रह्य है। वह चक्र है आवेग और उप-आवेग का। राग और द्वेष है, इसीलिए क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार मूल आवेग उत्पन्न होते हैं। राग और द्वेष है, इसीलिए हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), काम-वासना-ये सारे उप-आवेग उत्पन्न होते हैं। इन सबके मूल में राग और द्वेष है। आवेगों की पृष्ठभूमि में ये दो अनुभूतियां काम करती हैं। जब तक ये अनुभूतियां हैं, तब तक आवेग और उप-आवेग की. उत्पत्ति को नहीं रोका जा सकता। यह चक्र घूमता रहता है। कभी आवेग : उप-आवेग 81 .