________________ है कि जब आवेग प्रबल होता है, तब ग्रंथिपात होता है। यह आवेग आने के बाद जाता नहीं। जब क्रोध अनन्तानुबंधी की कोटि का होता है, तब वह सहजता से नहीं जाता। वह चट्टान की दरार जैसा होता है। चट्टान में दरार पड़ गयी, वह फिर मिटती नहीं। अमिट बन जाती है। एक रेखा बालू पर खींची जाती है और एक रेखा पानी पर खींची जाती है। पानी की रेखा तत्काल मिट जाती है, मिट्टी की रेखा कठिनाई से मिटती है, फिर भी वह चट्टान की दरार की भांति कठिन नहीं होती। आवेग की भी ये चार स्थितियां, अवस्थाएं होती हैं-तीव्रतम, तीव्रतर, मंद और मंदतर। कर्मशास्त्र की भाषा में इनके चार नाम हैं तीव्रतम-अनन्तानुबंधी तीव्रतर-अप्रत्याख्यानी मंद-प्रत्याख्यानी . मंदतर-संज्वलन। प्रथम कोटि का आवेग दृढ़तम होता है। उस स्थिति में राग-द्वेष की गांठ इतनी कठोर होती है कि सम्यक्दृष्टि प्राप्त नहीं होती, सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करने की तैयारी नहीं होती। उसके उदय से भौतिक जीवन इतना मूर्छामय, इतना प्रगाढ़ निद्रामय हो जाता है कि व्यक्ति सत्य को देखने का प्रयत्न ही नहीं करता, जागृति के बिन्दु पर पहुंचने का प्रयत्न ही नहीं कर पाता। जीवन में केवल मूर्छा व्याप्त रहती है। दृष्टि मूर्छित रहती है। यथार्थ हाथ नहीं लगता। निंदियाई आंखों से आदमी ठीक देख नहीं पाता, नशे में आदमी देख नहीं पाता, उसे यथार्थ का बोध नहीं होता, क्योंकि वह मत्त है, सुप्त है। जब तक आवेग की यह अवस्था बनी रहती है, राग-द्वेष की ग्रंथि तीव्र होती है, तब तक सत्य का दर्शन नहीं होता। सम्यक् दर्शन उसे प्राप्त नहीं होता। वह मिथ्या-दृष्टि होता है। उसका दर्शन मिथ्या होता है। तत्त्व का विपर्यय होता है। जीवन में सारा विपर्यय ही विपर्यय होता है। इस तीव्र आवेग की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया होती है कि व्यक्ति के चिंतन-मनन को विकृत कर देती है। चिंतन-मनन विपर्यस्त हो जाता है। जब उस आवेग की तीव्रता कम होती है, उसका परिशोधन होता है, उसका तनुभाव होता आवेग : उप-आवेग 83