________________ है और मन भी प्रभाव का निमित्त बनता है। किन्तु निमित्त का मूलस्रोत है-कर्म। कुछ मानते हैं कि परिस्थिति के कारण ऐसा होता है। किन्तु उसमें हमें अपवाद भी मिलते हैं। कई बार ऐसा अनुभव होता है कि वातावरण शान्त है, मन शान्त है, कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है, फिर भी मन में अचानक उदासी छा जाती है, मन चिंता से भर जाता है, वह शोकाकुल हो जाता है। कभी-कभी अचानक मन हर्ष से विभोर हो जाता है। यह सब सकारण हो तो बात समझ में आ सकती है। कोई हास्यास्पद घटना घटित हो और हंसी आ जाये या चिन्ता पैदा करने वाली घटना घटित हो और मन चिन्ता से भर जाये, यह बात समझ में आ सकती है। किन्तु अकारण ही मन में हर्ष या विषाद पैदा हो, यह आश्चर्य में डाल देती है। जब हर्ष, विषाद, चिंता या शोक का कोई प्रत्यक्ष हेतु नहीं दीखता, तब अचंभा होता है। कर्मशास्त्र ने इन अहेतुक आवेगों पर भी विचार किया और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि निमित्तों के मिलने पर या परिस्थितियों के होने पर हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब भय-वेदनीय कर्म का प्रबल उदय होता है और वे कर्म-परमाणु इतनी प्रबलता से उदय में आते हैं, शोक या चिन्ता पैदा हो जाती है। जब शोकवेदनीय-कर्म के परमाणु तीव्रता से उदय में आते हैं, तब बिना कारण ही मन में शोक छा जाता है। क्रोध-वेदनीय के प्रबल उदय से अकारण ही व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। इस प्रकार के क्रोध को 'अप्रतिष्ठित क्रोध' कहा गया है। अप्रतिष्ठित क्रोध का अर्थ है-अकारण उत्पन्न होने वाला क्रोध। उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, कारण नहीं है, निमित्त नहीं है। उसका हेतु कर्म के उदय की प्रबलता मात्र है। क्रोध-वेदनीय के परमाणु एक साथ इनती प्रबलता से उदय में आ गये कि व्यक्ति बैठे-बैठे ही गुस्से में आ गया। दैनंदिन के जीवन में हम ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। सब कुछ सकारण ही नहीं होता, अकारण भी बहुत कुछ होता है। अनेकान्त की स्वीकृति के अनुसार प्रत्येक कार्य के पीछे बाह्य कारण की अनिवार्यता नहीं है। कहीं-कहीं कारण स्वगत भी होता है, अलग 7 कर्मवाद