________________ अक्षयकोष से निकलकर विकासशील जगत् में आना। प्राणी-जंगत् की दो राशियां हैं। एक है व्यवहार-राशि और दूसरी है अव्यवहार-राशि। अव्यवहार-राशि वनस्पति का वह खजाना है, जो कभी समाप्त नहीं होता। उसमें अनन्त-अनन्त जीव रहते हैं। यह जो दृश्य जगत् है, इसमें जितने भी जीव आते हैं, वे सब अव्यवहार-राशि से निकलकर आते हैं। अव्यवहार-राशि सूक्ष्म जीवों की राशि है। यह अक्षयकोष है। यह कभी समाप्त नहीं होता। अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होता। दूसरी राशि है-व्यवहार-राशि। यह स्थूल प्राणियों का जगत् है। जो कोई भी जीव मुक्त होता है, वह व्यवहार-राशि से मुक्त होता है। अव्यवहार-राशि में पड़ा हुआ जीव कभी मुक्त नहीं होता। वहां से कोई मुक्ति की ओर नहीं जाता। मुक्त होने के लिए उसे व्यवहार-राशि में आना पड़ता है। हमारे चैतन्य का जितना विकास होता है, वह व्यवहार-राशि में ही होता है। अव्यवहार-राशि. में किसी का विकास नहीं होता। वहां केवल एक इन्द्रिय, एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होती है। वे सब वनस्पति के जीव हैं, यह वनस्पति के जीवों का अनन्त कोष है। इससे जीव निकलते हैं पर यह कभी खाली नहीं होता। यहां केवल एक इन्द्रिय की चेतना का विकास होता है। आगे विकास नहीं होता। न मन का विकास, न अन्य इन्द्रियों का विकास और न बुद्धि का विकास। कोई विकास नहीं। केवल स्पर्शन इन्द्रिय -त्वचा का विकास। प्रगाढ़ मूर्छा, प्रगाढ़ निद्रा। जो चैतन्य प्राप्त है, उसका सूचक है स्पर्शन इन्द्रिय और कुछ भी नहीं। इस अव्यवहार-राशि से कुछ जीव व्यवहार-राशि में आते रहते हैं। क्यों आते हैं-यह एक प्रश्न है। यदि कर्म ही सब कुछ होता तो वे वहां से निकल ही नहीं पाते। किन्तु काललब्धि, काल की शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलकर व्यवहार-राशि में आ जाते हैं। काल की शक्ति असीम होती है। उसी शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलते हैं। यदि कर्म के आधार पर निकलते तो जैसे दस-बीस निकलते हैं. वैसे ही सौ-हजार जीव भी निकल आते। लाख और करोड़ भी निकल आते। अनन्त भी निकल आते। किन्तु वे कर्म की शक्ति से नहीं निकलते। वे निकलते हैं काल की शक्ति से, काललब्धि से। समस्या का मूल : मोहकर्म 73